अनायाश ही नहीं…

घनघोर कालिख छायी है आसमान में
वातावरण भी विचित्र शांत है,
शायद ऐसा तो नहीं कि,
किसी तूफान का अनुमान है !

हर कोई मांझी से कह रहा कि
अपनी पतवार वो न उतारे सिंधु में;
प्रचंड हिलोरों से टकराकर
समा जायेगा वो अन्नंत बिंदु में.

पर मांझी आज बहुत धीर है
लक्ष्य को लेकर वह अपनी, आज बड़ा गंभीर है.
चुनौतियों में संभावनाएं तराशने, के प्रति आशक्त है
आज वह तो केवल, अपने उद्देस्य का ही भक्त है.

कमर कस ली है उसने
और उसकी संगिनी, नौका भी तैयार है.
आज दोनो की इक्कठे
प्रचंड सागर को, ललकार है.

और देखिये इस दुस्साहस को
सिंधु  में  उतार दी  नाविक  ने  नाव
हम ये देखें कि वह पाता है सागर के मोती
या होती है उसकी, सागर के हाथों ही क्रूर मौत

जीतेगा  मांझी  अगर  तो ,
मानव  सृष्टि हर्षितमय  हो  जाएगी
और  होगी  मौत अगर  तो, बहदुरी पर उसके ,
मानव  संग  मेघा  भी , अश्रुधार  बहाएगी.

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7 thoughts on “अनायाश ही नहीं…”

  1. बहुत सुंदर रचना
    उद्देस्य या उद्देश्य
    आपने मेरे गलत टाईप हो गये शब्द को “र्मज” को बताकर मेरी गलती सुधारी थी ।यहाँ मुझे भी यही लगा इसलिए बता रही हूँ क्या मैं सही हूँ अगर नही तो माफ कीजिएगा।

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    1. यही तो फायदा है रिव्यु का :). आप सही हो,उद्देश्य ही होना चाहिए यहाँ. पर मुझे काव्य रचना में एक और अनुभाव आया है. “स” और “श” की ध्वनि कवि अपने लिए सुरक्षित रखता है और ग्रामीण परिवेश में मूलतः “स” को प्राथमिकता दी जाती है, लिरिक्स में भी ठीक बैठता है. जैसे “देश” हो जाता है “देस”. एक और उदाहरण: आप इस लिंक रसखान की एक कविता से रूबरू होंगे, उसमें “पशु” को “पसु” कहा गया है http://hindinest.com/bhaktikal/02310.htm

      शुक्रिया एक बार फिर से 🙂

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      1. हाँ मुझे लगा था मगर मैं आश्वस्त होना चाहती थी
        मैने भी एक रचना में कलेश की जगह कलेस का प्रयोग किया है। देहात की भाषा के तौर पर “मै बिरहन” में

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  2. आपकी नीचे की पंक्तियाँ किसी रास्ते की ओर आगे बढने की प्रेरणा दे रहें हैं। धन्यवाद अभय जी इतनी अच्छी कविता के लिए।

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