बसंत

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Image Credit: Dinesh Kumawat

बसंत

आज मेरे आँगन में
आम के पेड़ पर मंजर आया है
जाने वो मंज़र कब आएगा
जब तुम मेरे आँगन में आओगे !

उसी पेड़ की किसी शाख पे बैठे,
कोयल ने राग भैरवी गाया है
जाने तुम कब आकर आँगन में
राग बासंती गाओगे!

मंज़र की ख़ुशबू में
शमा पूरी तरह है डूबा
जाने कब तेरी महक
घर आँगन में छाएगा
वह मंज़र कब आएगा !

सूरज ढली, चाँद शिखर पर आयी
विचलित हुई, तुम्हें आवाज़ लगायी
पदचाप सुनी, भागी चली आयी
पर अब भी आंगन सूना है!!!
वह मंज़र कब आएगा
जब तुम आँगन में आओगे!

13 thoughts on “बसंत”

  1. वसंत के आगमन को आपने सार्थक कर दिया. वसंत में आपकी बिरहा वाली कविता खूबसुरत है.

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    1. हा हा धन्यवाद , सार्थक का तो पता नहीं, आम के मंजर और कोयल की कुहू सुनकर कुछ पंक्तियाँ लयबद्ध हो गयी ☺️

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