मंज़िल मेरी ….

the ETERNAL tryst

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मंज़िल मेरी ….

हूँ किस दिशा से आया,
जाना मुझे किधर है
हो मिलन जहाँ तेरा मेरा,
मंज़िल मेरी उधर है

आसमान से उतरी
और जब धरा पे ठहरी
अमावस की वो काली रात मानो
पूर्णमासी में हो बदली
कैसा अनुपम और मधुर
होता वो पहर है
हो मिलन जहाँ तेरा मेरा
मंज़िल मेरी उधर है

दूबों पर पड़ी ओस जैसी
हो तुम निर्मल
फूलों की पंखुड़ियों जैसी
हो तुम कोमल
मेरे मन से टकराती हर पल
तेरी यादों की लहर है
हो मिलन जहाँ तेरा मेरा
मंज़िल मेरी उधर है

नज़रों से होकर ओझल
जाने कहाँ भटकती
बिन देखे तुम्हें एक पल भी
साँसे मेरी अटकती
लौट चलो हैं जहाँ शहर मेरा
कि वहीं कहीं, तेरा भी तो घर है
हो मिलन जहाँ तेरा मेरा
मंज़िल मेरी उधर है

………अभय …………

Hello Friends, Once again I have given a try to translate my poem…

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23 thoughts on “मंज़िल मेरी ….”

    1. Thank you Monika, I have written and published it earlier in my blog, but today again re-blogged it. One of composition which is dear to me. ☺️

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  1. दूबों पर पड़ी ओस जैसी
    हो तुम निर्मल
    फूलों की पंखुड़ियों जैसी
    हो तुम कोमल
    मेरे मन से टकराती हर पल
    तेरी यादों की लहर है
    हो मिलन जहाँ तेरा मेरा
    मंज़िल मेरी उधर है

    वाह भाई आज तो छा गए आप बहुत ही सुंदर रचना की
    वाकई लाज़वाब है

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