स्पर्श
थका हुआ सा
रुका हुआ हूँ
अतीत के बोझ तले मैं
दबा हुआ हूँ
यहाँ आशंकाओं
का है डेरा
जैसे कालिख
अमावस का
हो घेरा
पर मन
हारा नहीं मेरा
लगें हैं जैसे
यहीं पास में
तो है सवेरा
सवेरा आएगा
संग कई और हो आएंगे
अमावस में जिसने
थामा था हाथ मेरा
वह स्पर्श
कैसे भूल पाएंगे?
……अभय ……
थामा था हाथ मेरा
वह स्पर्श
कैसे भूल पाएंगे?
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वाह —–बहुत खूब
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धन्यवाद मधुसूदन जी!
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अति सुन्दर
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शुक्रिया!
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Superb
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So beautiful…❤
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Thank you Shivee 😇
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welcome😇
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Bahut khub 😊😊
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Shukriya ☺️
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बहुत शानदार , सराहनीय 😊😊😊😊👍👍👍
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शुक्रिया अजय बाबू ☺️
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बहुत खूबसुरत कविता. हर काली रात का सवेरा होता है. तब साथ देने वाले ही अपने होते है.
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शुक्रिया🙏
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Heart Touching Poetry!:-)
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Thank you Shivangi 🙏
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waah waah
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शुक्रिया ☺️
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बहुत ही खूबसूरत अभिव्यक्ति हुई है स्पर्श की इसकी अनुभूति की जा सकती है।
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