स्पर्श

स्पर्श

थका हुआ सा

रुका हुआ हूँ

अतीत के बोझ तले मैं

दबा हुआ हूँ

यहाँ आशंकाओं

का है डेरा

जैसे कालिख

अमावस का

हो घेरा

पर मन

हारा नहीं मेरा

लगें हैं जैसे

यहीं पास में

तो है सवेरा

सवेरा आएगा

संग कई और हो आएंगे

अमावस में जिसने

थामा था हाथ मेरा

वह स्पर्श

कैसे भूल पाएंगे?

……अभय ……

20 thoughts on “स्पर्श”

  1. बहुत खूबसुरत कविता. हर काली रात का सवेरा होता है. तब साथ देने वाले ही अपने होते है.

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