दुविधा ..

हुई क्या बात कि तुम अपना
चेहरा छिपाते फिर रहे हो
घबराओ मत , कि यहाँ हर पल अँधेरा है
किसी का चेहरा नहीं दिखता यहाँ

सबके चेहरे पर नकाब मिलती है
कि सबको डर है असलियत कोई जान न ले
झूठ के साये में पूरी ज़िंदगी निकल जाती है
कि सब में भय है कि सच की कड़वाहट  कहीं जान न ले ले

हँसते हैं इस कदर कि मानो
इनसे खुश कोई और हो ही नहीं सकता
पर हैरान हूँ कि यहाँ
रूमाल और तकिये हमेशा  गीले क्यों मिलते हैं

ऊंचाई से शायद यहाँ सबको डर लगता है
नीचे गिरने कि मानो एक होड़ लगी रहती है
मुझसे भी कोई उम्मीद मत रखना
कि यहाँ के तौर तरीकों को मैंने बहुत जल्दी सीखा है

……अभय ……

19 thoughts on “दुविधा ..”

  1. हँसते हैं इस कदर कि मानो
    इनसे खुश कोई और हो ही नहीं सकता
    पर हैरान हूँ कि यहाँ
    रूमाल और तकिये हमेशा यहाँ  गीले क्यों मिलते हैं——बिलकुल सत्य एवं सटीक लिखा आपने—-।

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  2. Unveiling this masquerade requires immense courage as you aptly mention ”कि सबको डर है असलियत कोई जान न ले”

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  3. दुविधा ये कविता आपकी मन को छू लेने वाली और बहुत ही अच्छा है। मैं खाली समय में पीछे की रचनाएँ भी पढती हूँ क्योंकि एक बार में बहुत शब्दों का अर्थ समझ में नहीं आता दोबारा पढ़ने पर अर्थ क्लीयर हो जाता है।

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