कुछ और..

कुछ और..

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Credit: Internet

कुछ और नहीं मन में मेरे

बस मिलने को आ जाता हूँ

मत पूछो तेरी यादों में

मैं क्यों घर बसाता हूँ


मिलते ही तेरी आँखों से

आँसू झर-झर बहते हैं

लोग कहे उन्हें पानी,  मुझे वो 

मोती ही लगते हैं


अगणित रातों में जब-जब

नींद तुम्हे न आती हो

मेरी क्या गलती है उसमें, जो तुम

दोषी मुझे बताती हो


माना अपना दूर शहर है

मंज़िल भी नहीं मिलती है

मेरी आँखों में झाँक के देखो

तुमसे वो क्या-क्या कहती है


तिमिर चीरने के खातिर

मैं एक  दीया जलाता हूँ

मत पूछो तेरी यादों मैं

मैं क्यों घर बसाता हूँ

……अभय……

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35 thoughts on “कुछ और..”

  1. Oh a new theme of write up.Well tried Abhayji.I wish you Hope so that you soon cross paths with your allusion.

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    1. 😇😇
      जादूगर तो नहीं, बस भावनायें व्यक्त करता हूँ, बड़प्पन आपकी है जो इसमें अर्थ ढूंढ लेती हैं!
      शुक्रिया रेखा जी 🙏

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  2. कुछ और नहीं मेरे मन में,
    बस मिलने को आ जाता हूँ,
    मत पूछ तुम्हारी यादों में,
    घर मैं क्यों रोज बसाता हूँ,
    बहुत खूब लिखा अभय जी—–लाजवाब

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    1. शुक्रिया मधुसूदन जी. आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार कर रहे थे ☺️🙏

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      1. बहुत बडी और मेरे मन की बात बोल डाली,सच में हम एक परिवार से हैं जो एक दूसरे की प्रतिक्रिया और राय का इंतजार करते हैं,सुक्रिया आपने एक और अच्छी कविता लिख डाली।

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    1. शुक्रिया रजनी जी! तिमिर उपयुक्त लगा तो निकल आया मन से ☺️🙏

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