मंजिल

Today I am sharing one of my poem, which has already been published in my blog. Many of you might have already read it. However, many new bloggers have connected with me in recent times. So read / re-read it and let me know was it worth the time which you have spent in reading…

the ETERNAL tryst

मंजिल  

अकेले ही तुम निकल पड़े ,
कितनी दूर , कहाँ तक जाओगे ?
बैठोगे ज्यों किसी बरगद की छावों  में
मुझे याद कर जाओगे

मैं तेज नहीं चल सकती
मेरी कुछ मजबूरियां हैं
और यह भी सच है, जो मैं सह न सकुंगी
तेरे मेरे दरमियाँ, ये जो दूरिया हैं

कुछ पल ठहरते
तो मेरा भी साथ होता
सुनसान राहों में किसी अपने का
हाथों में हाथ होता

कोई शक नहीं तुम चल अकेले
अपनी मंज़िल को पाओगे
पर देख मुझे जो मुस्कान लबों पे तेरे आती थी
क्या उसे दुहरा पाओगे ?

…….अभय ……..

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15 thoughts on “मंजिल”

  1. अपने हो सफर में तो,थकन नहीं होता,
    बिन अपनों के सफर,सफर नहीं होता,
    मंजिल की प्यास मंजिल मिला देती है,
    गैरों के बीच खुद का जशन नहीं होता,
    याद बहुत आऊंगी मंजिल पाने के बाद,
    क्या हंस पाओगे तुम दूर जाने के बाद,
    सह नहीं पाऊंगी दर्द,मैं भी जुदा होकर,
    मिट जाऊंगी,मैं भी तेरे जाने के बाद,
    साथ हम भी होते गर थोड़ी देर रुक जाते,
    हाथों में हाथ ख़ुशी से,सारी उम्र गुजर जाते,
    हम होते साथ सफर में,तो थकन नहीं होता,
    बिन अपनों के फिर, सफर नहीं होता।।

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