एक पुकार

एक पुकार

हार हुई , होती ही है
इस मर्त्यलोक में कौन सर्वदा जीता है
झेलम के तट पर अलक्ष्येन्द्र भी
अश्रुधार को पीता है

समय न हरदम एक सम होता
निराशा के बादल भी छाते हैं
प्रताप जैसे प्रतापी शासक भी
घास की रोटी खाते है

तो तुम हो घबराये क्यों ?
दोनों नेत्र तुम्हारे गीले क्यों ?
शोणित अश्कों को तुम धो लो
अब तीसरे नेत्र को तुम खोलो

जला दो सारी मन की दुर्बलता
भुला दो सारी अपनी कृपण विफलता
साहस और संयम को तुम साथ धरो
और अपने युग की तुम शुरुआत करो 

……..अभय…….

 

शब्द सहयोग:
अलक्ष्येन्द्र : Alexander The Great, term used by Jayshankar Prasad, a prominent Hindi poet.
शोणित: Blood, Sanguinary;
अश्कों=Tears;

 

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32 thoughts on “एक पुकार”

  1. उम्दा—-युग बदलता है,समय एक सा नही होता,फिर रोना कैसा,,,,शानदार लेखन।
    क्यों बैठे हो मन को मार,
    नई नही ये हाहाकर,
    सदियों से देखी धरती माँ,
    अनगिनत ही अत्याचार।

    Liked by 1 person

  2. बहुत ही अच्छा और प्रेरणा दायक कविता है। अपने युग की तुम शुरूआत करो। तो मरे लिए पथ प्रदर्शक है। बहुत खूब अभय जी ऐसे ही लिखते रहिये मुझे भी प्रेरणा मिलती रहेगी। 👌👏

    Liked by 1 person

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