कागज़ी पतंग

कागज़ी पतंग

मैं धरती पर पड़ा था
रद्दी कागज का जैसे कोई टुकड़ा
बना पतंग आसमान में मुझको
आपने भेजा,
ढील दी
दूसरे दानवी पतंगों से मुझे बचाया
मैं ऊपर चढ़ता रहा
बढ़ता गया
बादलों से भी ऊपर
अनंत गगन में
उन्मुक्त, स्वतंत्र
कि अब मुझमें ऊंचाई का
नशा छा गया है
कि अब मुझे धरती भी नहीं दिखती
दिखता है तो केवल
स्वर्णिम आकाश
और ये भी नहीं दिखता कि
मेरा डोर किसी ने थामा था
थामा है
छूटी डोर तो मेरा क्या होगा!
होगा क्या?
मैं फिर वही
रद्दी कागज़ का टुकड़ा

……अभय…..

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13 thoughts on “कागज़ी पतंग”

  1. बेहतरीन भाई जी।खूबसूरत कविता।

    जिंदगी कागज के टुकड़ों सा,
    किसी ने पतंग बना दिया,
    धरती पर बिखरा था,
    सड़,गल जाता कब का,
    अम्बर दिखा दिया,
    अब हमें लगता है ऐसे,
    जैसे हमें हवाओं ने थाम रखा है,
    कहाँ मतलब धरती से अब,
    हमें अपना मकसद दिखा रखा है,
    निश्चित आगे बढ़ना जिंदगी का लक्ष्य है,
    मगर पदचिन्हों को देखना भी जीवन का तथ्य है,
    वरना ऊँचाई का नशा गहराई भूला देता है,
    रद्दी के टुकड़े का सच्चाई भुला देता है।

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    1. शुक्रिया!!! आपकी बेहतरीन प्रतिक्रिया के लिए जिसका मुझे अक्सर इंतज़ार रहता है 🙂

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      1. इंतेजार तो हमे भी होता है।एक अपनापन सा हो गया है।धन्यवाद सराहने के लिये साथ ही खूबसूरत कविता लिखने के लिए।

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  2. वाह अभय जी बहुत खूब। हम इंसानों की डोर भी जिसके हाथ में है वो दिखता नहीं। वैसे आपकी कविता से बहुत कुछ सीखने को मिला। 👌👌👌

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    1. शुक्रिया रजनी जी, मैंने उन्हीं के लिए लिखा है. आपने सटीक अध्ययन किया

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  3. जीवन की उन्मुक्त विचारधारा
    ओर
    समाज, परिवार के कच्चे धागों सी डोर
    बंधन ओर व्यक्तिगत स्वतंत्रता की दुरह परिस्थितियों को सहज ही निरूपित करने की अद्वितीय कला है आपकी कलम में।

    शानदार रचना के लिए बधाई

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    1. आपके द्वारा उत्कृष्ट साहित्यिक शब्दों में अपनी काव्य की प्रसंशा सुनकर मन विहंगम हो गया, आशीष बनाये रखें!

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