अनायास ही नहीं ..4

अपनी यादों से तेरी यादों को
विस्मृत होने नहीं देता
लौ बुझ सी जाती है
मैं दीये में तेल फिर से उड़ेलता हूँ
मैं तुम्हे खत लिखता हूँ
हर वर्ष अनवरत
अलग बात है कि
चिट्ठियों को अब मैं उनका
पता नहीं देता
हाँ, ये भी सच है कि
अब मुझे तुम्हारे
पते का पता भी तो नहीं
और सच कहूँ तो
अब जरुरत भी नहीं
कि मेरा हर संदेश तुम तक पहले भी
बिना पते के पहुँचता था
बिना पते के पहुँचेगा
यादें न हुई कि
हो गए पदवेश में फँसे कंकड़
मैं जितने कदम बढ़ाता हूँ
हर कदम पर चुभन का
एहसास दिलाती है
पर मैं न पदवेश बदलता हूँ
न कंकड़ निकालता हूँ
बस चलता जाता हूँ
चलता जाता हूँ

……अभय …..

 

 

 

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25 thoughts on “अनायास ही नहीं ..4”

  1. वाह बेहतरीन कविता भाई जी ……..बहुत खूब.

    कितने निर्मोही लोग यहाँ फिर भी है उनसे मोह,
    मिटाये मिट नहीं पाता,
    दिल से उनका मोह मिटाये मिट नहीं पाता |
    सूरज नित आता जाता है,
    चन्दा भी चमक दिखाता है,
    कई ऋतुएँ आती जाती हैं,
    पतझड़ में खुशबु लाती हैं,पर वे बैठे किस लोक,
    मिटाये मिट नहीं पाता,
    दिल से उनका मोह मिटाये मिट नहीं पाता |
    पते बिन जैसी पाती,
    घूमती,घूमता दिन रात्रि,
    खत क्या मैं दिल नित भेजूं,
    हर राह में जिनको देखूं,वे छोड़ गए किस ओर,
    मिटाये मिट नहीं पाता,
    दिल से उनका मोह मिटाये मिट नहीं पाता |

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    1. मेरी लेखनी को पढ़ने और उसके बाद भी सबसे ज़्यादा समय कोई समय देता है तो मुझे आप ही लगते है मधुसूदन जी! शुक्रिया। लेखनी का जवाव नही।

      Liked by 1 person

      1. Jo kavita dil ko chhu jaati hai aur kuchh likhne ko majbur karti hai…..nischit hi uspar samay main jyaadaa detaa hun…….akshar aapki kavita hamen samay dene par majboor karti hai…..aise hi likhte rahiye…..sukriya apka.

        Liked by 1 person

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