दीप, अंधकार, प्रकाश और मैं..

नमस्ते मित्रों, कैसे हैं आप लोग? पिछले कुछ समय से समय की व्यस्तता के कारण हिंदी कविताओं का सृजन और उनका प्रेषण नहीं कर पा रहा था. पर सिर्फ समय को दोष दूँ तो कोई ठीक बात नहीं, समय के संग संग मन में भी विचार पनपने चाहिए और खास कर तब जबकि आप कोई पेशेवर कवि न हों.
कई दिनों बाद आज कुछ विचार आया आप तक पहुँचाता हूँ, ज़रा संभालना 🙂

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जो तुम दीप बुझा दोगे अपनी
घोर अँधेरी रातों में
और सोचोगे कि मैं अब संग मौजूद नहीं
तो मैं बता दूँ आपको कि
मैं न तो प्रदीप्त प्रकाश हूँ
न ही खामोश अंधकार कोई
मेरा अस्तित्व न तो
चंद दीयों पर निर्भर करता है
दीये के जलने पर भी मैं हूँ
दीये के बुझने पर भी मैं ही
माना नज़र न आ सकूँ
पर नज़र न आना और अस्तित्व न होना
दोनों एक बात तो नहीं
बोलो, है कि नहीं ?

…….अभय…….

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28 thoughts on “दीप, अंधकार, प्रकाश और मैं..”

  1. बिल्कुल भाई।
    मैं हूँ ए सत्य है प्रकाश तुम्हारी नजरों को मेरा दीदार कराती है। ये नहीं तो भी मैं हूँ।

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