पैदल ही चल दूंगा…

बिन विवशता के पक्षी

अपना नीड़ छोड़ता  है क्या ?

अपनों खेत खलिहानो से

मुँह  मोड़ता  है  क्या ?

मैंने  भी  घर  छोड़ा  था

स्वजनों के जीवन बचाने को

दो वक़्त की रोटी कमाने को

अविरल अश्रुधार पोछ जाने को

देश नहीं मैंने छोड़ा,

पर गांव ने परदेशी बोला

शहरो ने न कभी मुझको अपनाया

दूर कहीं झुग्गियों में मुझे फेंका आया

बिन  शिकायत  के  मैं

उनके फरमानों को सुनता, सहता रहा

नारकीय  दृश्य  देख  कर  भी

आँखों  को  मूँदता  रहा

अब आज  महामारी  आयी  है

जब  पूरी  दुनिया  में  छायी  है

शाषन तंत्र  का  नग्न  चेहरा

सबके  सम्मुख  आयी  है

विदेशों   से  प्रवासी

विमानों  से  लाये  जायेंगे

अपने देश में ही अपनों के हाथों

हम  ही  सताए  जायेंगे

हमें  सड़कों पर चलता देख

कुछ की  नींद  खुली  है

नींद  इसलिए  नहीं  खुली  कि

वो  संवेदनशील  हो  चले  हैं

इसलिए  खुली  कि  लॉक डाउन  में

सो-सो  कर  थक  चुके  हैं

उन्हें  एंटरटेनमेंट  चाहिए

मीम   का  कंटेंट  चाहिए

गावों  में  अपने  ही  लोग

संदेह  कि  दृष्टि  से  देखंगे

पुलिस  राहों  में

लाठियां  बरसायेंगे

लम्बा  सफर  है ,

तय  कर  ही  लूंगा

कि मेरे पाँवों  में

संघर्ष  का  बल  है

पर  तुम  चुनाव  में

नज़रें  तो  मिलाओगे  फिर  से

कि तेरी  आँखों  में

कहाँ  शर्म  का  जल  है ?

…….अभय…….

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