कभी कभी तो आँखों से
अश्रुधार अनवरत बह जाने दो
क्या पता कि अतीत के
कई दर्द भी उनमें धुल जाये
.
कभी कभी तो खुद की नौका
उफनते सिंधु में उतर जाने दो
क्या पता कि लहरों से टकराकर
उस पार किनारा मिल जाये
.
कभी कभी किसी मरुभूमि को
अकारण ही जल से सींचो
क्या पता कि कोई सूखा पौधा
फिर से पल्लवित हो जाये
.
कभी कभी अनायास ही
अन्यायी से सीधे टकराओ
क्या पता कि कई मुरझाया चेहरा
एक बार फिर से मुस्कुरा जाये
.
कभी कभी तो खुद से ज़्यादा
नियति पर भरोसा रखकर देखो
क्या पता कि सब संदेह तुम्हारा
क्षणभर में क्षीण हो जाये
.
कभी कभी तो संभावनाओं को
विश्वास से भी बढ़ कर तौलो
क्या पता कि आशाओं की चिंगारी
इतिहास नया कोई लिख जाये
.
कभी कभी तो ईश चरण में
शीश झुकाकर के देखो
क्या पता फिर और कहीं
मस्तक तुमसे न झुकाया जाये
…..अभय…..
It took me some days to finally compose this poem. Hope you will like it.विशुद्ध हिंदी के पाठकों से विशेषअनुरोध है कि अपनी राय से जरूर अवगत कराएं.🙂
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