मुझे ज्ञात है ..

Shikhar

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अनायास ही नहीं ..4

अपनी यादों से तेरी यादों को
विस्मृत होने नहीं देता
लौ बुझ सी जाती है
मैं दीये में तेल फिर से उड़ेलता हूँ
मैं तुम्हे खत लिखता हूँ
हर वर्ष अनवरत
अलग बात है कि
चिट्ठियों को अब मैं उनका
पता नहीं देता
हाँ, ये भी सच है कि
अब मुझे तुम्हारे
पते का पता भी तो नहीं
और सच कहूँ तो
अब जरुरत भी नहीं
कि मेरा हर संदेश तुम तक पहले भी
बिना पते के पहुँचता था
बिना पते के पहुँचेगा
यादें न हुई कि
हो गए पदवेश में फँसे कंकड़
मैं जितने कदम बढ़ाता हूँ
हर कदम पर चुभन का
एहसास दिलाती है
पर मैं न पदवेश बदलता हूँ
न कंकड़ निकालता हूँ
बस चलता जाता हूँ
चलता जाता हूँ

……अभय …..

 

 

 

मेरा मन..

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  मेरा मन जहाज़ सा,
उड़ने वाला नहीं
तैरने वाला,
पानी का जहाज
और तुम सागर सी,
हिन्द महासागर नहीं
प्रशांत महासागर
अथाह, असीमित, अन्नंत
मन चंचल था मेरा,
तैरता तुममें
कभी शांत
कभी हिचकोले करता हुआ
पर वह अब डूब रहा है
गर्त में, तह तक
जैसे किसी सागर में कोई
जहाज डूबता है,
अस्तित्व को भुला
जैसा कि पहले
कोई, कुछ था ही नहीं
केवल सागर का सन्नाटा
और लहरों के हिचकोले
सिर्फ तुम ही तुम,
मैं स्तब्ध, शुन्य, मौन!

……..अभय…….

 

खुला पिंजरा

 

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तूने वर्षों तक
पिंजरें में मुझे जो कैद किया
और फिर कहके कि बड़प्पन है “मेरा” 
जाओ तुम्हें आज़ादी दी
और पिंजरे को फिर से खोल दिया

अब जब आदत हो चली इस पिंजरे की
और उड़ना भी मैं भूल गया
तो ये खुला पिंजरा भी क्या कर पायेगा
जो उन्मुक्त नभ में उड़ता था पंक्षी
बस धरा पर रेंगता रह जाएगा

 

………अभय ……..

ओ मेघा !

 

Cloud
Clouds are building up in my city, Clicked it in the morning. A place, from where I love watching rains

ओ मेघा !

अलग सी प्रतीक्षा, अलग सा समां है

है आने को मेघा, सभी हर्षित यहाँ हैं

ओ मेघा!

इस बार मेरे छत के ऊपर

तुम आकर केवल मत मंडराना

जो दूर से आये हो तुम लेकर

उस जल को हम पर बरसाना


सूखी जमीं है, सूखा है तन

पीले पड़े पत्ते, रूखा है मन

ओ मेघा!

इस बार तुम अपनी भीषण गर्जन से

तुम हमे केवल मत डरना

जो दूर से आये हो तुम लेकर

उस जल को हम पर बरसाना


नदियां भी प्यासी, कुँए हैं प्यासे

बूंदों को तरसते, हम भी ज़रा से

ओ मेघा !

इस बार अपनी बिजली की चकाचौंध से

तुम आतिशबाज़ी केवल मत कर जाना

जो दूर से आये हो तुम लेकर

उस जल को हम पर बरसाना

…..अभय….

वो पल …..

वो पल  …..

वो पल फिर से आया है
जब चाँद धरा पर छाया है
भँवरों ने गुन गुन कर के
आकर तुम्हें  जगाया है

बारिश की बूंदें छम छम कर
तन को देखो भींगो रही
ठंडी बसंती हवा चली
भीगे तन को फिर से सुखा रही
कोयल बैठ बगीचे में
स्वागत गीत है सुना रही

निकलो घर से, बहार देखो
कितने मोर नाचते आये हैं
कोयल की राग से कदम मिलाते
सतरंगी पंख फैलाएं हैं

बसंत का मौसम मानो
आकर यहीं है रुक गया
आम से लदा पेड़ मानो जैसे
तेरे लिए ही  है झुक गया

 

…………अभय………….