तमाचा

आज-कल गर्मी अपने चरम पर है और होनी भी चाहिए. समय पर सब कुछ हो तो उचित है. जलवायु परिवर्तन एक सच्चाई है और इसके कारण हम मौसम की अवधि और इसकी तीव्रता में बदलाव को सहज ही अनुभव सकते हैं. आपके उधर का मौसम कैसा है?

गर्मी का मौसम, शाम को दो चार दोस्तों का जमावड़ा और गन्ने के रस की दुकान, क्या जबरदस्त मिश्रण है. आपको नहीं लगता? कल रविवार था और लगभग कुछ ऐसा ही संयोग बना. जहाँ हम रुके उस गन्ने की दुकान को एक महिला चला रहीं थी. पास ही में उसके दो बच्चे खेल रहे थे. एक आठ-दस साल का होगा. उसका काम ग्लास में भरे गन्ने के रस को उचित ग्राहक तक पहुँचाना था और ख़ाली गिलास को वापस ले जाना था. दूसरा शायद उससे छोटा हो, पर पक्का पक्का नहीं कह सकता.

गन्ने का रस, उसमें पुदीने के पत्ते का मिश्रण और बर्फ की छोटी-छोटी सिल्ली. मैं फिर गिलास नहीं गिनता हूँ और खास कर तब जब कि पैसे देने की बारी अपनी न हो. कल ऐसा ही सुअवसर था.

दोस्तों के बीच बातें शुरू हुई. IPL की. राजनीति की. देश की अर्थव्यवस्था की. पेट्रोल के बढ़ते दामों की. एक मित्र ने Bollywood को बीच में घुसेड़ना चाहा. बाकि बचे हुए लोगों ने उसको जबरन चुप करवा दिया. मेरी भी मौन स्वीकृति थी.

बीच-बीच में गन्ने के रस आते रहे और निर्बाधित रूप से पेट में जाते रहे. इसी बीच वो दोनों छोटे बच्चे आपस में लड़ लिए. वजह पता नहीं और उस उम्र में वजह होती भी है क्या? मेरी दृष्टि एक बार उन दोनों की तरफ गयी पर मेरे एक मित्र ने मेरे पसंदीदा राजनितिक दल पर लांछन लगाना शुरू किया. मैं राजनितिक दृष्टि से काफी संवेदनशील (politically sensitive) हूँ. अपने ध्यान को उन बच्चों से खींचकर अपने पसंदीदा राजनितिक दल के बचाव में तर्क प्रस्तुत करने में लगा दिया. राजनितिक बहस की मर्यादा को कायम रखते हुए हमारी आवाज़ अंग्रेजी के एक प्रसिद्ध समाचार चैनल के वक्ता के सामान तीखी हो चली. दुकान को चलाने वाली महिला के हाव भाव को देखकर यह लग रहा था कि शायद उसे हमारा उसके दुकान पर बहस करना पसंद नहीं आ रहा था. पीछे से दोनों बच्चों ने हमसे प्रेरणा लेकर और भी सक्रिय हो गए और जम के लड़ने लगे.

तभी आयी झन्नाटेदार आवाज़. जूस की दुकान वाली ने अपने बड़े बेटे के गाल पर रसीद कर दी एक जोरदार थप्पड़. उनकी लड़ाई ख़त्म. हम लोग आपस में एक दूसरे को देखने लगे. हमारी बहस जो ध्वनि की चोटी (highest pitch) पर पहुँच गयी थी, वो भी ख़त्म.

हम यह सोचने लगे कि ये तमाचा कहीं हमारे लिए ही प्रतीकात्मक (symbolic) रूप में तो नहीं था. हमारी चुप्पी तो यही बयां कर रही थी कि महिला अपने उद्देश्य में सफल रही. मैंने अपने एक मित्र (जिसकी आज पैसे देने की बारी थी) के तरफ इशारा करके पैसे बढ़ाने और वहां से खिसकने का संकेत किया. मेरे मित्र ने भी संकेत को भली भांति समझा.
कुछ सेकंड की चुप्पी के बाद वह बच्चा अचानक से रोना शुरू कर दिया. उसके स्वर की ऊंचाई काफी ज्यादा थी. अपनी माँ की तरफ देखकर वह फूट-फूट कर रोने लगा. आँखों से आँसू गिर रहे थे और वह अपने अलाप में “माँ-माँ” शब्द को दुहरा रहा था. (अब उसके रोने को मैं शब्दों में कैसे बयां करुँ, आशा है आप कल्पना कर पा रहे होंगे )

मेरे दोस्त ने पैसे बढ़ाये. मेरा ध्यान रोते हुए बच्चे पर टिका रहा. सच कहूँ, आप किसी से कहना मत, बचपन में मेरी भी खूब धुनाई हुई है पर हाँ, मुझे इस बात को कोई घमंड नहीं है. 😝 पापा से भी और माँ से भी. बराबर की कुटाई. पर अब जब हम तीनों कभी इस विषय पर बात करते हैं तो तीनों के बीच इस विषय को लेकर काफी विवाद रहता है. मैं कहता हूँ आप दोनों ने मुझे बराबर कूटा है. पापा कहते हैं कि मैंने नहीं, मम्मी ने ज़्यादा मारा, माँ कहती है कि पापा ने. इस विवाद का, कश्मीर मुद्दे के सामान, आज तक कोई निष्कर्ष नहीं निकल पाया है. अब मैंने भी इस मुद्दे पर बात करना छोड़ दिया है. अंग्रेजी में कहे तो अब embarrassing लगता है.😀

ख़ैर वापस उस बच्चे पर. वो लगातार अपने विलाप में अपनी “माँ” को ही स्मरण कर रहा था. दोस्त ने पैसे दिए और हम आगे निकल गए पर मैं वही सोचता रहा कि बच्चे को उसकी माँ ने ही पीटा पर वह उन्हीं का नाम लेकर क्यों रो रहा है?

मैंने कई बार बच्चों में यही प्रवृति देखी है. ऐसा नहीं है कि बच्चे सिर्फ माँ से पिटाई खाते हैं. वो स्कूल में शिक्षकों से पीटते हैं, पर रोते समय वो अपने शिक्षक का नाम नहीं लेते, या दोस्तों से पीटने के बाद “दोस्त-दोस्त” कर नहीं रोते.

मैं निष्कर्ष पर निकला कि माँ का सम्बन्ध इन्हीं कारणों से भिन्न हैं. वो धुलाई भी करेंगी, खुद भी रोयेंगी, रुलायेंगी भी और हमें मन को शांत करने के लिए अपने नाम को बुलाने पर मजबूर भी करेंगी. ये माँ लोगों की भी अजीब प्रजाति होती है. आपको नहीं लगता ?

P.S. इस लेख को मैंने पहले अंग्रेज़ी भाषा में लिखा, पर मज़ा नहीं आ रहा था कारण की परिवेश देसी था। आशा है आपको पसंद आया हो, तो अपने विचारों को कमेंट के माध्यम से साझा करना न भूलें।

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रेस्टोरेंट का खाना ..

उम्र 13-14 की होगी. नीचे से उसके शर्ट के दो-तीन बटन टूटे हुए थे, जब वह दौड़ कर अपने पिताजी की तरफ़ आ रहा था तो हवा में उसकी शर्ट फैलने लगी, ऐसा लग रहा था जैसे आकाश में कोई विशालकाय पक्षी अपना पंख फैलाये उड़ रहा हो. पावों में चप्पलें तो थी, पर मटमैली सी,पुरानी और घिसी हुई..पर चेहरे के हँसी और ख़ुशी में कोई घिसावट नहीं. एकदम निश्छल, स्वछंद और आत्मविश्वास से भरी हुई..

रौशन के पिताजी ने उसके चेहरे के भावों को पढ़ लिया और ख़ुशी से पूछा “पास हो गए दसवीं?” रौशन ने कहा “पपा, दसवीं में हम जिले में तीसरे नंबर पर आएं हैं”. पिताजी, जो शहर के बाहरी छोड़ पर हो रहे निर्माण स्थल           (कंस्ट्रक्शन साइट) पर एक दिन में 200 रुपये की मजदूरी कर, वहां से 12 किलोमीटर दूर साइकिल चलाकरअपने छोटे से घर में दिन भर की थकान से चूर बैठे थे, अनायास ही उनकी सभी थकावटें जाती रही और उन्होंने भावविभोर होकर बोले “शाबाश, बेटा!!!”
साइकिल से अपने कार्य स्थल पर जाते हुए एक बहुत खूबसूरत रेस्टोरेंट को रौशन के पापा रोज देखते थे, और सोचते थे इसमें साहब लोग अपने दोस्तों, परिवार के सदस्यों के संग खाने को आते होंगे और यह भी सोचते थे कि किसी ख़ुशी वाले दिन वो भी अपने लोगों को लेकर इस होटल में जरूर आएंगे. पर उनके मन में संदेह रहता था कि क्या वहां का खर्च वो वहन कर पाएंगे, उनकी आमद ही कितनी ? यदि महीने के तीसो दिन काम करें तो भी 30 गुणे 200 मतलब 6000 के महीने. पर आज उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था और उन्होंने रौशन से कहा कि चलो आज तुम्हे ऐसा खाना खिलाएंगे कि तुमने खाया नहीं होगा. रोशन भी बहुत खुश, अपने पिता की ख़ुशी देख उसका सीना गर्व से प्रफुल्लित था.रौशन के पिता ने सोचा कि कितना महँगा होगा खाना, अपने दो दिन की कमाई को उन्होंने जेब में रख लिया और सोचा कि भले ही पूरी रकम खत्म भी ही जाये तो आज गम नहीं है

दोनों रेस्टोरेंट के गेट पर पहुंचे, गेट पर खड़े चौकीदार ने संदेह भरे आँखों से देखा, पर दरवाजा खोल दिया. रेस्टोरेंट को देख रौशन के मन में संदेह हुआ कि यह तो बहुत महँगा होगा और उसने अपने आशंका पिताजी को बताई, उसके पापा ने बोला कि आज ख़ुशी का मौका भी तो है, रौशन मुस्कुराया.

सामान्य लोग पहले किसी वास्तु का मूल्य पूछते हैं फिर चीजों को पसंद करते हैं, पर जो संपन्न होते हैं वो पहले चीजों को पसंद करते हैं फिर उसका मूल्य जानते हैं.
इसी प्रवृति का परिचय देते हुए कि कहीं खाने के बाद शर्मिंदगी न झेलनी पड़े इसलिए उसके पापा ने पहले खाने का दाम पूछना उचित समझा और रेस्टोरेंट के किसी कर्मचारी को बुलाकर उन्होंने ने जानकारी लेनी चाही..वेटर ने कहा एक प्लेट खाने की सबसे कम कीमत 500 रुपये! पिताजी के होश ही उड़ गए. उनके जेब में दो दिन की पूरी कमाई 400 रुपये थे, पर वह एक व्यक्ति के लिए एक वक़्त के खाने के लिए भी कम हो रहे थे. रौशन ने उनके चेहरे के बदलते हुए भाव को बख़ूबी पढ़ लिया. उसने बचपन से ही भावों को पढ़ना सीख लिया था. वेटर वहां से किसी और ग्राहक के पास चला गया .. रौशन ने अपने पापा से कहा “पपा, चलिए यहाँ से चलते हैं” पापा ने बोला “तुम कहीं नहीं जाओगे, यहाँ थोड़ी देर रुको, मैं घर से 100 रुपये लेकर आता हूँ, कम से कम तुम तो खा लोगे, मैं तुम्हें इतने शौक़ से लाया हूँ, भूखे नहीं जाने दूंगा” रौशन ने कहा “पपा, आपको लगता है हम ऐसा करेंगे? आप नहीं खाएंगे और हम यहाँ खा पाएंगे ?” पिताजी के आँखों में आँशु के कुछ बूंदें गहरी होने लगी थीं , और फिर उनके बेटे ने कहा कि “वैसे भी मुझे यहाँ का खाना अच्छा नहीं लगेगा, चलिए यहाँ से “. जो आँशु घने बादल के समान आँखों में मंडरा रही थी, अब उसने आँखों में उसने धार का रूप ले लिया था.. दोनों निकल ही रहे थे की वेटर ने पूछा “सर, आपलोग कुछ लेंगे नहीं?” रौशन ने कहा “आज नहीं, फिर कभी आएंगे”

प्रतिस्पर्धा / Competition

आज दोपहर को खाने पर एक संबंधी के यहाँ जाना हुआ. सामान्यतः मुझे बाहर किसी के घर जाकर खाना, तबकी जबकि आप अकेले बुलाये गए हों, पसंद नहीं हैं . पर उनका काफी दिनों से आग्रह था तो मैं तैयार हो गया. उनके घर पहुँचा तो काफी खातिरदारी हुई. और खातिरदारी किसे अच्छी नहीं लगती.

उनके घर में बहुत सी बातें हुई. मेरे बारे में, घर के बारे में, मेरे प्रोफेशनल कैरियर के बारे में. मैंने भी कुछ कुछ बातें पूँछी. बात चीत के क्रम में यह पता चला की उनका लड़का रोहित इस बार ग्यारहवीं में गया है और हर माँ बाप की तरह उनको अपने बेटे के भविष्य की चिंता सता रही थी कि आगे जा के लड़का क्या करेगा.

उन्होंने बताया कि रोहित पढाई में औसत है, खेल में भी रूचि नहीं लेता और उसका कोई और शौक भी नहीं है. वे बोले कि हम यह नहीं चाहते कि रोहित सिर्फ पढाई करे बल्कि हम चाहते हैं कि उसको जो भी पसंद हो वो वही करे. अफ़सोस है कि वह अपनी रूचि जाहिर ही नहीं करता. जिससे की जीवन की दिशा तय करने में उन्हें परेशानी आ रही है . उन्होंने मुझसे आग्रह किया कि मैं उससे बात करूँ. शायद वह मुझे कुछ बताये.

मैंने बोला “ठीक है, मैं कोशिश करता हूँ कुछ बात करने की”. फिर बात-चीत के बाद हम खाने पर बैठ गए. वैसे सच कहूँ तो मुझे इसका इंतज़ार भी था, भूख जोरों की लग गयी थी और बातों  से पेट तो नहीं भरता ना. खाने में मेरी पसंदीदा शब्जी शाही पनीर, मशरूम, दाल मखनी, रोटी, पुलाव और अंत में मिठाई के दो-तीन प्रकार थे. खाना शानदार बना था. अंगुली चाट के खाने लायक. पर मैंने थोड़ी सभ्यता और शिष्टाचार का परिचय देते हुए अंगुली नहीं चाटी.

मैं और रोहित ने खाना साथ में खाया और खाने के पश्चात उसने मुझे अपने कमरे में आराम करने को कहा. सच कहूँ तो मैं भी उससे अकेले में ही बात करना चाहता था. उसका कमरा बहुत खूबसूरत था. अल्बर्ट आइंस्टीन की एक बड़ी सी तस्वीर जिसमे वह अपने जीभ को निकले हुए थे, दीवाल से लटक रहा था. एक तरफ की अलमारी साजो सज्जा के सामान से भरी पड़ी थी तो दूसरी ओर पुस्तकों, कॉमिक, नोवेल्स से भरी थी.

यद्यपि हमारे परिवार का सम्बन्ध काफी घनिष्ट है, पर मैं बहुत दिनों से उनके घर नहीं गया था. रोहित जब छोटा था तो मैं उसको बहुत समय अपने साथ रखता था., तब वह मेरे घर के बहुत करीब रहता था. और फिर मैं भी शहर से बाहर चला गया, तो उन लोगों से बातचीत और संपर्क न के बराबर ही थी.

आज क्रिकेट का मैच आ रहा था तो मैंने सोचा कि बात चीत शुरू करने का इससे अच्छा साधन भारत में और कुछ नहीं हो सकता. बात चीत से पता चला कि उसको कम उम्र के बावजूद क्रिकेट के बारे में बहुत कुछ पता था. फिर मैंने पढाई के सम्बन्ध में बातें भी की. मुझे वह बहुत प्रभावशाली लगा. मैंने उससे पूछा की आगे क्या करना चाहते हो?? उसने लपक कर जवाब दिया, “पापा ने आपसे पूछने को बोला क्या”?
मैं  हँसा और बोला “नहीं, नहीं बस यूँ ही पुँछ रहा हूँ, क्या पापा हमेशा ऐसे ही टार्चर (Torture) करते हैं ?”. उसने कहा “हाँ ऐसा ही समझिये, पर मैंने अभी सोचा नहीं है कि मुझे क्या करना हैं “. मैंने पूछा “क्रिकेट के बारे में इतनी बारीकी से जानकारी रखते हो तो क्या क्रिकेटर बनना चाहते हो”. उसने जवाब नकारात्मक में ही दिया. फिर वह स्वतः ही बोला “मुझे इंजीनियर बनना है.”

मैंने कहा “अरे वाह ! यह तो अच्छी बात है. तो फिर समस्या क्या है” उसने कहा “मैंने सुना है कि IIT- JEE की परीक्षा जो देश कि सर्वोत्तम इंजीनियरिंग संस्थान है उसमें कॉम्पटीशन  बहुत ज़्यादा और कठिन होता है. मुझे लगता है कि मैं उसको पास नहीं कर पाउँगा, पर यह भी बात सच है कि मैं उसके अलावा कहीं और नहीं पढ़ना चाहता.”

मैं समझ गया कि रोहित का उद्देश्य तो है और वह उसको पाने में सक्षम भी है पर परीक्षा में लाखों की संख्या में प्रतिभागी होते हैं और वह उससे जनित प्रतिस्पर्धा से डर रहा है. मुझे समस्या तो समझ आ गयी पर मैं उसको कैसे समझाऊँ, यह समझ नहीं आ रहा था.
तभी अचानक, उसके कमरे से कुल्फी वाले कि घंटी सुनाई दी. मैंने पूछा कि तुम कुल्फी खाओगे. हमारे शहर में गर्मी जोरदार और कुल्फी शानदार मिलती है. तो अगर आपको डॉक्टर ने मना न किया हो तो आप दोपहर में कुल्फी खाये बिना रह नहीं सकते.

Kulfi
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तो हम कमरे से बाहर निकल कर लॉन में आये और रोहित ने कुल्फी वाले को आवाज़ लगायी. वह हमारी तरफ बढ़ा. टन टन की घंटी हमारे करीब आ गयी और साथ करीब आया उसको बेचने वाला. उम्र रोहित के बराबर या एक दो साल छोटी ही होगी. रोहित ने कहा दो कुल्फी देना, और वह उसको देने में व्यस्त हो गया. मेरा ध्यान उसके पहनावे पर गया. उसके कमीज़ के एक कंधे का भाग की सिलाई खुली हुई थी शर्ट में नीचे से एक दो बटन खुलकर कहीं गिरे होंगे ऐसा प्रतीत हो रहा था, ध्यान उसके चप्पल पर गयी तो थोड़ी और हैरानी हुई, उसके दोनों पावों में अलग अलग चप्पलें थी, एक में लाल रंग का फ़ीता था दूसरे में नीले रंग का.

इसी बीच एक और लड़का आया. उसकी उम्र मेरी ही जितनी रही होगी, वही २५-२६ साल की. उसने कुल्फी वाले से कहा की कुल्फी बना के पीछे वाली सड़क में आना. उस कुल्फी वाले लड़के ने मना कर दिया और बोला “मैं नहीं आऊंगा”. मैं थोड़ा हैरान हो गया कि कोई भी दुकानदार अपने ग्राहक से इतनी खीजता से तो बात नहीं ही करता है. फिर उस लड़के ने कुल्फी वाले से कहा “बेटा, आना तो पड़ेगा ही” और कह कर चला गया. मुझे माजरा समझ नहीं आया. पर कुल्फी वाले की आंखे सहम सी गयी थी.
खैर उसने कुल्फी तैयार किया और हमे बढ़ा दी. मैंने दाम पूछा तो, उसने ५० रुपये बताये. इसी बीच रोहित अपने जेब से 50 का नोट निकल कर देने लगा. मैंने कहा “औकात में रहो बच्चे, बड़ा मैं तो मैं ही दूंगा”. वह हँसने लगा और मैंने उसे नोट बढ़ा दी.

हम लॉन में कुल्फी खाने लगे. कुल्फी शानदार थी. एक शानदार खाने के बाद एक लज़ीज कुल्फी और वो भी चिलचिलाती गर्मी में. मज़ा आ गया. हम दो चार बार से ज़्यादा नहीं खाये थे की अचानक बाहर से शोर गुल और अफ़रा तफरी की आवाज़ आने लगी. बाहर झांक कर देखा तो दो लड़के उस कुल्फी वाले बच्चे की धुनाई कर रहे थे. एक ने उसके गले को पकड़ा हुआ था और दूसरा उसके कुल्फी के बक्से को ज़मीन पर उलट दिया . कुल्फी का छोटा छोटा डिब्बा, जिसमे कुल्फी जमती है ज़मीन पर बिखर गयी . कोई डिब्बा हरे रंग का था, कोई लाल तो, कोई नीला. मैं दौड़ कर उसकी ओर भागा . मेरे पीछे रोहित.
मुझे आता देख दोनों लड़के भागने लगे उसमें से एक चिल्ला कर बोला “कल से दिखना मत” और वे नज़र से ओझल हो गए. कुल्फी वाला लड़का अपने ठेले के बगल में बैठ अपनी बिखरी हुई कुल्फी की तरफ देख कर रो रहा था. ऐसा लग रहा था मनो किसी के ख्वाब ज़मीन पर बिखर गए हों. रोहित और मैं कुल्फी के डिब्बे को एक एक कर उठा कर उसके ठेले में रख रहे थे. वह अब भी ज़मीन पर बैठा था मनो उसका पूरा मनोबल टूट कर बिखर गया हो.
मैंने उससे पूछा की “आखिर हुआ क्या, उन लड़कों ने तुम्हे क्यों मारा”? उसने अपने साहस को जुटा, अपने शर्ट के बाजु से आँख को पोछते हुए कहा “वो दोनों भी कुल्फी वाले हैं. मुझे मना किया था इस इलाके में आने से क्योंकि वो कहते हैं ये उनका इलाका है .मैं दूसरे मोहल्ले में गया था पर वहाँ बिक्री नहीं हुई. ठेला और ये बक्सा किराये पर लिया है. एक दिन का दोनों मिलाकर 100 रूपया. बिकेगा नहीं तो चुकाऊंगा कैसे. घर में माँ बीमार है, छोटी बहन का स्कूल फी है”. मैंने पूछा पापा क्या करते हैं? उसने कहा “दारू पीकर कहीं पड़े होंगे”. मैंने पूछा “अब  तुम क्या करोगे”. उसने बड़ी दृढ़ता से जवाब दिया “क्या करूँगा? यही करूँगा कि कल फिर इसी मोहल्ले में आऊंगा और यहीं कुल्फी बेचूँगा, देखता हूँ वो कितना मारते हैं.

मैं हैरान, हतप्रभ. इसी बीच मेरी नज़र रोहित पर पड़ी, उसकी आँखों से आंसू धरल्ले से निकल रहे थे. मुझसे नज़र मिलते ही उसका ह्रदय और भर आया और अपनी जेब में से 150 रुपये (जो शायद उसके पास उतने ही होंगे) निकाल कर कुल्फी वाले बच्चे की हाथ में थमा घर की ओर भागा. कुल्फी वाले बच्चे ने उस पैसे को रख लिया और मुझे धन्यवाद कहकर ठेला लेकर जाने लगा. वह ठेले की  घंटी को बजा बजा कर लोगों को सूचित कर रहा था कि कुल्फी वाला आया हैं, सिर्फ लोगों को सूचित ही नहीं उस घंटी की  आवाज़ में उन दोनों लड़कों को चुनौती भी थी कि वह लड़का डरने वाला नहीं हैं.

रोहित घर में, ठीक उसी के उम्र का कुल्फी वाला मेरी दूसरी ओर ठेला लेकर बढ़ रहा था. मैं बीच में खड़ा न आगे बढ़ पा रहा थे न पीछे जा पा रहा था. तभी रोहित घर से निकला. जाते समय उसकी आँखों में आँसू थे, पर अब उसका चेहरा मुस्कुरा रहा था. उसने कहा  “उस लड़के के कॉम्पटीशन   के आगे मेरा कॉम्पटीशन  तो कुछ भी नहीं हैं . मैं IIT -JEE की तैयारी करूँगा, पुरे मन लगा के. माँ पापा को आप बता दीजियेगा.”

जब कुत्ते पीछे पड़ते हैं :-P

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तो कल शाम मुझे जैसे ही मेरे छोटे भाई का फ़ोन आया कि मुझे उसे लेने को स्टेशन जाना होगा, मैं थोड़ा सकपकाया. वजह भी आपको बता दूँ. मेरे घर से रेलवे स्टेशन की दूरी ज्यादा नहीं है, वही दो से ढाई किलोमीटर होगी और न ही मुझे रात से डर लगता हैं. फिर आप सोच रहे होंगे की आखिर वजह क्या थी? वजह थे कुत्ते.

मुझको बताने में रत्ती भर भी शर्म नहीं आती कि मुझे आवारा कुत्तों से डर लगता है. जब वो झुण्ड बना के जोरदार आवाज़ में भों- भों कर भौंकते हुए पीछे पड़ते हैं, तो सच में मैं हिल जाता हूँ तथा प्रार्थना और दौड़ स्वाभाविक हो जाती है.

जब भाई ने कहा कि उसकी ट्रेन रात 2:30 बजे आने वाली है, मैंने कहा “सुबह नहीं आ सकते थे”. वह समझ गया कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ, और वो हंस के बोला आप मत आइएगा, मैं खुद कैब कर आ जाऊंगा. पर उसे भी पता था कि पापा या तो खुद आएंगे या मुझे भेजेंगे. मैंने कहा रहने दो अकेले आने की जरुरत नहीं है, मैं आ जाऊंगा.

दूरी ज्यादा नहीं हैं, पर मेरे घर से स्टेशन के बीच में एक बाजार पड़ता हैं, वही इलाका बहुत खतरनाक हैं. खतरनाक इसलिए कि वहां कुत्ते बहुतायत होते हैं और रात में तो मानो उनका एकक्षत्र राज चलता हैं. हालिया दिनों में मैंने अनुभव किया कि आवारा कुत्तों की संख्या में काफी बढ़ोतरी हुई है. मानो जैसे  भारत की जनसंख्या विस्फोट में वे पुरजोड़ तरीके से सहयोग कर रहे हैं.

मेरे कुत्तों से डर की वजह का भी इतिहास रहा है, और इतिहास लंबे समय में ही बनता है. तो ऐसा समझिये कि मेरा और कुत्तों के बीच का संघर्ष  बचपन से चला आ रहा हैं. न जाने कितनी बार मैंने दौड़ लगायी होगी, अब तो गिनती भी याद नहीं, पर एक बात है कि कुत्ते एक बार भी काट नहीं पाए. हर बार मैं जीता. गिर-पड़ के ही सही हर बार मैं बचा और यदि कोई सिनेमा निर्देशक मेरी हरेक दौड़ और उससे जनित परिस्थिति पर फिल्म बनाये तो वह “भाग मिल्खा भाग” से ज्यादा रोमांचित और जोश भरने वाली होगी.

खैर छोड़िये, रात ढली और और ज्यों ज्यों समय नजदीक आया तो मैंने पापा से पूछा कि एक बात बताइये कि जब कुत्ता भौंके तो क्या करना चाहिए. वे हँस पड़े और बोले रहने दो मैं ले आऊंगा उसको. माँ भी हँसी रोक न पायी. मैं तुरंत अपनी बचाव में उतरा और बोला ऐसा नहीं हैं कि मैं कुत्ते से डरता हूँ, बस यूँ ही पूछ रहा हूँ, बचाव तो जरुरी हैं न. इस कथन ने मानो उत्प्रेरक (Catalyst) का काम किया हो. दोनों और जोड़ से हँसे. पापा बोले जब कुत्ता भौंके तो अपनी जगह पर रुक जाना चाहिए और धीरे-धीरे आगे निकलना चाहिए, कुत्ते खुद ही चले जायेंगे . मैं लपक कर बोला आप क्या बोल रहे हैं?? कुत्ते की ध्वनि कान के परदे और मन के साहस को झकझोरने वाली होती है, अगर मैं रुकुंगा तो वे काट नहीं लेंगे? वे बोले एक बार रुक कर देखना. मैंने बोला ऐसा कभी नहीं होगा, वो काट ही खाएंगे. वे फिर बोले कि चलो कोई बात नहीं तुम चिंता मत करो सो जाओ मैं ले आऊंगा. मैंने किसी तरह उनको मनाया कि आप सो जाइये मैं ही ले आऊंगा.अब तो इज़्ज़त की भी बात थी.

जब उन्हें भरोसा हो पाया कि मैं सच में जाऊंगा तो वे सोने चले गए और मैं अपने को युद्ध के लिए मानसिक तौर पर तैयार करने में लग गया.

तब वह समय भी आ गया, मैंने अपनी बाइक निकली और युद्ध भूमि की ओर कूच किया.जैसे ही बाजार के पास पहुँचा, हुआ वही जिसकी आशंका थी. 5-6 नहीं बल्कि कम से कम 10-15 कुत्ते पीछे पड़ गए, सिर्फ पीछे ही नहीं बल्कि अगल- बगल और कुछ तो आगे आगे भी दौड़ रहे थे. चारो तरफ सुनसान था. किसी से उम्मीद भी न थी, मैंने अपने पैर को गियर और ब्रेक से हटा ऊपर कर लिया जिससे कि कुत्ते काट न ले.

हद्द तो तब हो गयी जब झुण्ड में से एक कुत्ता बिलकुल गाड़ी के नीचे ही आने वाला था. कुछ भी हो सकता था, मैं गाड़ी से गिर सकता था या उसको इस जनम से मुक्ति मिल जाती. अब मुझे गुस्सा आ रहा था. अनायास ही मैंने गाड़ी रोकने का फैसला किया और सोचा कि देखते हैं कि आखिर ये दौड़ते क्यों हैं मुझे? पर उसके बाद जो हुआ मेरे लिए सुखद आश्चर्य से कम था.

पापा से पहले भी यह सिद्धान्त कि “कुत्ता दौड़ाये तो भागना नहीं चाहिए”, कई बार सुना था और जितनी बार भी सुना हर बार इसकी भर्त्सना मैंने की. पर आज प्रत्यक्ष अनुभव कर रहा था. सभी कुत्ते आस पास रुक गए थे , कोई भी मेरी तरफ आगे नहीं आ रहा था, पर हाँ उनका भौकना बंद नहीं हुआ था. मैंने यह देख धीरे धीरे गाड़ी आगे बढ़ाना शुरू किया, वो अब भी भौंक रहे थे पर आगे नहीं बढ़ रहे थे. धीरे धीरे मैं स्टेशन तक पहुँच ही गया. सिर्फ स्टेशन तक ही नहीं पहुँचा बल्कि एक और लक्ष्य की भी प्राप्ति हुई . मैं आपको कह दूँ की इस घटना के पश्चात कुत्तों से मेरा डर लगभग खत्म हो गया.

घटना ने मुझे बहुत प्रभावित किया. अक्सर हम ज़िन्दगी में किसी न किसी परेशानी से घिरे होते हैं. और कई बार तो किसी परेशानी का डर मन में इस कदर घर कर गया होता है कि हम जीना भूलकर उस परेशानी के बारे में ही सोचते रह जाते है. डर का सामना सामने से करना चाहिए, सफल हुए तो वह जड़ से खत्म हो जाती है. जब कोई संकट से हम भयभीत होकर बचते हैं, तो अक्सर हम पाते हैं कि किसी न किसी रूप में वह वापस आ जाती है. मुझे लगा कि हमें उनसे भागना नहीं चाहिए, पर खड़े होकर, दृढ़ता के साथ, डट कर मुकाबला करना चाहिए. क्योंकि डर में जीना कोई अच्छी बात तो है नहीं ..

यह कौन सा मौसम है?

 

 

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Jubilee Park, Jamshedpur. Credit: Google Image.

 

शाम को पार्क में बैठा था. हवा में ठंडक थी, मानो पेड़ एयर कंडीशन में बदल गये हों. उसके हरेक झोके मन को सुकून पहुँचाने वाले थे.

तभी, अचानक एक लड़के ने “चिप्स, आलू का चिप्स ” की आवाज़ लगायी. मेरी ओर बढ़ा और पूछा क्या आप लोगे ? मैंने उसे देखा. 14-15 साल का होगा. चेहरा मासूम सा. मैंने पूछा कितने के दिए? उसने कहा 10 की एक पैकेट. फिर, मैंने उससे नाम पूछा और पूछा कि कहाँ रहते हो. उसने नाम बताया “मुन्ना” और जहाँ रहता था उस बस्ती का नाम बताया. फिर मैंने पूछा कि स्कूल नहीं जाते? उसने बोला “हाँ जाता हूँ न, मैथ्स में कुछ पूछिये”.

उसका आत्मविश्वास देख में हतप्रभ था. शायद ही मैं किसी को इतने विश्वास से कुछ पूछने को कह पाता. मैंने कहा एक पैकेट दे दो. उसने चिप्स के बोरे में से एक पैकेट मेरी तरफ बढ़ा दी और पूछा कि पानी की  बोतल भी लेंगे? मैंने कहा नहीं, इसकी जरुरत नहीं है.

मेरी जिज्ञासा उसमे बढ़ी और पूछा कि पापा क्या करते हैं. उसने कहा “गोलगप्पे बेचते हैं, आप सोच रहे होंगे कि मुझे चिप्स क्यों बेचना पड़ता है”. मैं चुप रहा, वो खुद बोलने लगा “मेरी दसवीं की परीक्षा है और आगे मुझे और पढ़ना हैं. इंजीनियरिंग करना हैं. उसके लिए कोचिंग लगेगी. तो मैं शाम के खाली  समय में कभी कभी आकर बेचता हूँ. ज़्यादा नहीं पर थोड़े सही पैसे तो बच जायेंगे, जो बाद में काम आएगी नहीं तो सारा बोझ पिताजी पर आ जायेगा”.
तभी अचानक सिटी की आवाज़ सुनाई दी, दो सिक्योरिटी गार्ड मेरी तरफ दौड़ा, मुझे समझ नहीं आया कि हुआ क्या? तब  वो लड़का भागा. मैं हैरान. कुछ दूर तक गार्ड ने दौड़ाया, पर उसकी दौड़ काफी तेज थी, गार्ड मोटे थे, थक कर रुक गए. फिर वापस आने लगे.

मेरे मन में शंका हुई कि लड़का कहीँ चोर-वोर तो नहीं. गार्ड सामने से गुजर रहे थे, मैंने पूछा गार्ड साहब, उसको दौड़ाया क्यों? गार्ड साहब बोले “बदमाश हैं साले, बार बार मना करो फिर भी नहीं सुनते, पार्क में चिप्स या और कोई चीज बेचना मना हैं. प्लास्टिक का पूरा कचड़ा फ़ैल जाता हैं”.

चोरी वाली बात सोच मन मे लज्जा आयी. गार्ड भी अपनी ड्यूटी पर थे, पर लड़का अपनी ड्यूटी से ज़्यादा कर रहा था. रिस्क लेकर भी. तभी अचानक याद आया की इस अफरातफरी में मैंने तो उसको पैसे दिए ही नहीं और वह जाने कहाँ चला गया. सोचकर अच्छा नहीं लग रहा था. चिप्स का पैकेट लिए मैं घर की तरफ निकला. पार्किंग में लगी अपनी गाड़ी में जैसे ही चाबी लगायी की वो लड़का वापस आया और बोला “भैया पैसे”? सच कहूँ तो आज तक किसी को पैसे देने में इतना मज़ा नहीं आया था. जेब से 100 का नोट निकाला और बढ़ा दिया उसकी ओर उसने 90 रुपये वापस किये और मुस्कुराते हुए दूर जाने लगा …वह जिधर जा रहा था वहां अंधकार था, शायद  सरकार के  स्ट्रीट लाइट की रौशनी वहां तक नहीं पहुंचती होगी.

रात ढली और घर पहुंचा. खाना खाने के पश्चात, जब सोने की बारी आयी तो गर्मी का अनुभव हुआ, पंखा को 5 पर करके सोना पड़ा. रात ज्यों ज्यों ढली तो ठण्ड भी बढ़ने लगी, २ बजे के आस पास चादर शरीर पर जगह बना चुकी थी. 5 बजे नींद खुली तो देखा, पतली कम्बल ने भी मुझ पर अपना कब्ज़ा जमा लिया था. उठा तो ठण्ड थी. नहाने के लिए पानी को थोड़ा गुनगुना करना पड़ा. घर से निकला तो बाहर पार्क में घास पर ओस की बूंद पड़ी थी, मानो बारिश हुई हो रात में. 9 बजे थे, धुप तो निकल चुकी थी पर हवा के चलने से तपिश का एहसास न था. पर दो पहर के खाने के बाद, जब बाहर खुले में निकला, तो ग्लोबल वार्मिंग का प्रत्यक्ष आभास हुआ. सोचा की फूल शर्ट पहनना ही ठीक था. पीने का पानी तो ठंडी ही जच रही थी. पेड़ के अधिकांश पत्ते पीले पड़कर, उसका साथ छोड़ रहे थे. पर कुछ नए पत्ते शाखों पर दिख रहे थे, मानो पेड़ की उम्मीद अभी बची हो…..
इतनी विविधताएं, यह कौन सा मौसम है …..बसन्त 🙂

 

मुन्ना के जीवन में कभी कोई ऐसा समय आया होगा कि वह सोचे कि अभी कौन सा मौसम है?

गरीबी क्या होती है ??

 

आज शनिवार की छुट्टी थी, तो घर पर ही पड़ा था दिन भर. साढ़े 4 या 5 बजे होंगे, घड़ी नहीं  देखी थी . मेरी चचेरी बहन, जो 5 साल की है, सोकर उठी और ब्रश करने लगी. मैं और माँ हैरान हो गए, कि लोग सुबह और रात को ब्रश करते हैं, ये शाम में ही शुरू हो गयी. मैंने पूछा कि छोटी तुम अभी ब्रश क्यों कर रही हो? उसने बोला, “बड़ा भैया, आज गुड मॉर्निंग नहीं बोले आप”.
मैं और माँ को बहुत हंसी आयी और सारा खेल समझ आ गया. दोपहर में काफी लंबे समय तक सोने के बाद शाम भी उसे सुबह जैसी लग रही थी और वैसे तो उसको रोज जबरदस्ती करके स्कूल के लिए तैयार करना पड़ता है और वो आज खुद तैयार हो रही थी. माँ से पता चला कि मैंने भी बचपन में एक दो बार ऐसी हरकत की  थी. बचपन होती ही ऐसी है, है ना ?
तभी मेरे नाम से कोई पुकारने लगा,पापा ने बताया कि अन्नू (मेरे बचपन का दोस्त, लड़का ही है :-P) मिलने आया है. हम बहुत अच्छे दोस्त हैं, पर बहुत दिनों से मुलाकात नहीं हो पायी थी. बहुत दिन मतलब 5-6 साल. वह कहीँ और रहता है. मैंने उसे घर में बुलाया. अब शाम रात में बदल रही थी और किसी तरह छोटी को  भरोसा हो पाया कि यह सुबह नहीं, बल्कि शाम ही था.
मैंने दो चेयर लिया और अन्नू को  छत पर चलने को कहा. छत पर शांति भी थी और हवा भी अच्छी चल रही थी. बहुत सारी बातें हुई. नयी-पुरानी. बात चीत के क्रम में उसने बताया कि वह कल अपने किसी संबंधी के बारात में गया था, पर वह मुझे थोड़ा उदास सा लग रहा था. मैंने पूछा कि भाई सब ठीक तो है. उसने बोला कि हाँ सब मस्त है. पर मुझे वह मस्त कहीं से भी नहीं लग रहा था. मुझे याद है कि हम दोनों काफी करीबी दोस्त हुआ करते थे . हम अपनी लगभग सारी बातें एक दूसरे से साझा करते थे. पर अब समय काफी बीत गया था. मैंने फिर से पूछा कि भाई सब सही में अच्छा है ना?
उसने कहा, अच्छा एक बात बताओ ये “गरीबी क्या है”? मैं गरीबी क्या है, को परिभाषित कर सकता था, पर इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं था, तो थोड़ा हिचकिचाने लगा और जो समझ आया बोला.

 

उसने कहा “कल कि एक घटना सुनोगे”? मेरे मन में बहुत अलग अलग विचार आ रहे थे. सोचने लगा कि शायद इन बीते दिनों वह शायद किसी बड़े आर्थिक संकट से गुजरा होगा. मुझे सोचता देख उसने झट से कहा, तुम्हे यह अजीब लग रहा हो पर मुझे तुम्हारे अलावा इसको शेयर करने वाला कोई और योग्य  नहीं मिला. मैंने कहा तुम सुनाओ घटना.
उसने शुरू किया. अब उसके शब्द ..
कल रात में मेरे सम्बंधित के घर से 8-9 बजे के करीब बारात निकली. मैं बहुत उत्साहित थे क्योंकि बहुत दिन हो गए थे किसी बारात में गए. माहौल भी बहुत अच्छा था, सबके चेहरे पर ख़ुशी, सबके चेहरे मुस्कुरा रहे थे, कोई जोक क्रैक कर रहा था तो कोई नए कपड़ों में तस्वीर लेने में व्यस्त था. दूल्हा, कार में पीछे, उसके आगे बारात. बारात के दोनों तरफ लाइट लिए हुए पंक्ति में बैंड बाजे वाले चल रहे थे. जैसा कि किसी भी अन्य भारतीय बारात में होता है. बीच में बैंड बाजे वाले अपने बाजे गाजे के साथ बारात में सामान्यतः बजने वाले गीत बज रहे थे.

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Representative Image, Source: Google.

चुकि, मुझे नाचना आता नहीं और नाचने में  शर्म भी आती है तो मैं बस भीड़ में खड़ा देख रहा था, पर यह भी सच है कि गानों के धुन पर पैर थिरक रहे थे . तभी मेरी नजर एक बैंड बाजे वाले कि तरफ पड़ी. वह मुँह से फूक कर बजने वाला इंस्ट्रूमेंट (नाम नहीं पता, नीचे की तस्वीर में देखिये ) बजा रहा था और उसकी आँखों से आंसू आ रहे थे. मैं विचलित हो गया. मन तो किया कि उससे पूंछू कि क्या हुआ पर क्योंकि  वह बजाने में व्यस्त था और उसके चुप होने से सारे बाराती, जो सब नाचने में व्यस्त थे, का ध्यान उधर आता. मैंने सोचा कि हो सकता है वह नया होगा और बजाने में शक्ति तो लगती होगी, इस वजह से आंसू आ गए हों.  पर अचानक से बारात के बीच में से किसी ने आवाज़ लगायी अरे!!  ज़ोर से बजा… जोर से.. मेरे यार कि शादी है….और कुछ देर बाद एक नवयुवक (जो मुझे नशे में लगा) गाली गलौज पर उतर आया और कहने लगा पैसे दिए हैं जोर से बजा जोर से, दुबारा ये शादी नहीं होगी…

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Representative Image, source: Google

तभी उस बाजे वाले जिसके आँखों  से आंसू बह रहा था उसकी इंस्ट्रूमेंट किसी और बाजे वाले ने ले ली और उसके हाथ में छन-छन करने वाली झालर पकड़ा दी. मैंने सोचा चलो ठीक है. पर मेरा ध्यान उसपर ही था. बीच बीच में मैं इधर उधर होता पर मेरा ध्यान पता नहीं क्यों उसपर ही टिका रहा. कुछ देर बाद देखा तो वह रो ही रहा था. अब तो मैं बस बारात पहुँचने का इंतज़ार करने लगा।

 

जल्द ही बारात पहुंची और मैं सीधे उसके पास. 35-40 के बीच में उसकी उम्र होगी. मैंने पूछा, क्या हुआ भैया कोई तकलीफ. वो चेहरे का रंग गिरगिट कि तरह बदल के बोला “नहीं नहीं बाबू कोई बात नहीं . हो सकता है कि उसने सोचा हो कि मैं उसकी क्लास लूंगा.  पर मैंने फिर उससे पूछा कि  बजाते समय रो क्यों रहे थे. अब मानो कि उसके दर्द की  बाँध टूट गयी हो. वो फबक कर रोने लगा और बोला “बाबू  मेरा बेटा कल गुजर गया . वह 15 साल का था. डॉक्टर बाबू बोले रहे कि ठीक हो जायेगा, 17 दिन तक इलाज भी होता रहा, महाजन से 35 हजार कर्जा भी लिए पर वह कल गुजर गया गया. मैं यहाँ बैंड बाजा बजा रहा हूँ, झाल बजा रहा हूँ… आकाश में पठाखे देख रहा हूँ… लोग नाच रहें हैं… मेरा बेटा मर गया….
इसी बीच मेरे एक संबंधी, जो शायद सिगरेट पीने बहार आये थे,  ने मुझे वहाँ देखा और बोले चलो अंदर यहाँ क्या कर रहे हो..मैंने बोला आप चलिए मैं बस आता हूँ. उसकी व्यथा सुनकर उसके दर्द का आंकलन करने में भी मैं असमर्थ था . मैंने पूछा,  तो आज आये क्यों? उसने बोला बाबू  गरीबी लाती है खींच के, हम कहाँ आते हैं. कर्जा चुकाना होगा महाजन का 35,000 का 6 महीना बाद 50,000 लेगा. हम कहाँ से पैसा लाएंगे. दिन भर मजदूरी किये, ये बारात का मौषम बार बार नहीं आता है. चला गया तो बहुत दिन बाद आता है. बेटा चला गया पर घर में दो बेटी है, पत्नी है, काम नहीं करेंगे तो खाना भी मुश्किल होगा.
मेरी आँखे भर आयी. मुझे लग ही नहीं रहा था कि मैं बारात में आया हूँ. पॉकेट में हाथ डाला 1500 निकले, उसके हाथ में थमाने लगा. पहले तो उसने बहुत मना किया पर मैंने शादी कि बख्शीस बता के दे दी. उसने आशीर्वाद में कुछ बोल बोले, मैंने ध्यान से सुना नहीं मेरे मन में बस एक ही बात चल रही थी…बेटा खो गया और उसको बैंड बजाना पड़ रहा है, झाल बजाने पड़ रहे हैं, लोगों को नाचता देखना पड़ रहा है, पटाखे जलाते देखने पड़ रहे हैं…

 

उसने कहा “अभय, गरीबी कुछ और नहीं, यही है” और कह कर चुप हो गया. घटना पूरी तरह झकझोरने वाली थी. और जिस तरह मेरे दोस्त ने वर्णन किया वह भी अद्वितीय था. मुझे उसपर गर्व हुआ कि उसने दर्द को देखकर अपना चेहरा नहीं फेरा. वह आज भी पहले की  तरह था, मुझे खुद पर संदेह हुआ कि क्या मुझे अब लोगों का कष्ट नहीं दीखता.

 

तभी माँ हमारे लिए गर्म-गर्म समोसे और इमली की चटनी बना के लायी. मैंने अपने दोस्त को  देखा उसने मुझे और फिर उसने  समोसे को उठाया. वह मुस्कुरा रहा था. माँ ने पूछा समोसे कैसे बने हैं ……

Hit-Wicket on V -Day :-P

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River Swarnrekha, during Monsoon.

So, I am continuing from where I have left it yesterday, as some event prompted me to write it again.  If you haven’t read, and willing to do so, you can check it out @ भोर की खोज..

Today also I woke up early. It was dark outside. But a hope was there that sun will emerge soon out of this darkness. I prepared myself for the morning walk. At 05:00 hrs I left home. Outside, season was tantalizing as usual in Feb. Cold breeze was blowing. Aroma of mango flowers (we call it  Manjari in Hindi), conspicuous in this month, were enchanting.

I plugged  in my ear phones and played the same Song (Bhajan) which I have mentioned in my last blog भोर की खोज... The volume was at maximum. Contemplating on each words of the song and appreciating the classical music of India and the way Pt. Bhim Sen Joshi has sung, I was marching towards the river.

It was still dark yet the street lights were glowing. Some other people were also strolling on the street. I was completely observed in the song then suddenly someone hold my hand. I experienced how fast our mind could be. Before I could turn back, numerous bizarre thought came. Who it could be?

A ghost!!!!  Oh it’s Valentine Day, how can I forget the atmosphere which has been created since past week for 14th February, especially on WP. Someone hold my hand in the very morning. Thought, Saint Valentine must be very kind on me.

But when I turned around, all my imaginations were shattered in seconds :P. I saw an old man in his 50s. His face was frightened. I asked “चचा !! क्या हुआ ??” (Uncle! What happened?) He was telling something, but since the music was playing at maximum volume, I couldn’t hear him. I plugged out my ear phone. Then heard asynchronous and horrific sound of woof.. woof.. woof.. Nearly 5-6 stray dogs were behind him. He said, “साले ! कुत्ते  पीछे   हैं ” (Dogs are behind me). I said “वो  तो  देख  रहा  हूँ , आप घबराओ मत, मेरे पीछे आ जाओ ” (That I am seeing, don’t panic just stay behind me). Then I stayed calm and scarred the dog by pretending to throw pebbles at them, when there was no stones around. Somehow dogs got scarred and ran away.

I smiled at uncle and ask jokingly, “क्या  चचा!!!  वैलेंटाइन  डे  के  दिन  आज  मैं  ही  मिला  था  सुबह  सुबह  हाथ  पकड़ने  को 🙂“(Uncle! on this valentine day you only found me to hold hand ) . As it turned out, uncle was more humorous, he replied  “बेटा , खैर  मनाओ  बजरंग  दल  से  हूँ मैं , जान  नहीं  बचायी  होती  तो  वैलेंटाइन  डे  के दिन, दिन भर तुम्हारे पीछे अपने आदमियों को छोड़ता ” (Son! you are lucky, I am from Bajrang Dal, if you haven’t saved my life today, then for taking the name of Valentine, I would have sent my men to have a watch on you for the entire day). I said jokingly, “ये पराक्रम कुत्तो  पर  क्यों  नहीं  दिखाया” (Why don’t you displayed your valor to the dogs). He replied more wittingly, “कुत्ते  थोड़े  ही न  वैलेंटाइन  डे  मानते  हैं ” (Dogs never celebrate Valentine Day).

I burst in to laughter, he followed me too. I said “Namste”  to him and marched forward towards the river. He replied “Thank You“. On reaching there, I removed  my shoes off and dipped my feet in to the water. Water was colder than the wind. Someone has just rang the temple bell. Birds were taking flights towards their destination. I was smiling……

 

What is Life..

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Representative image

Hello Friends,

After reading the topic/heading of my today’s post you might have an inkling that I may discuss some philosophical aspect of life in this write up. But, to tell you the truth, it’s not a philosophical article, rather a narration based on some events.

Old age is a truth of Life. But when we remain young, we hardly grant our thought towards this immutable reality. Especially the influence of western culture, prominence of nuclear family, new modes of entertainments, introduction of Old Age Homes etc keeps the old away from the youth and children, in turn, keeps away one aspect of life that most of us has to go through.

I am blessed to have my grandfather with me. But the sad part is that he is now ailing from past few months and his condition is deteriorating as the time progresses. “Old age in itself is a disease” once I have heard this term, now experiencing through him. He is unable to perform his regular activity not even to take his meal by himself. Though, he is in sound mind with full consciousness and memory, yet physically challenged due to perils of old age.

Yesterday night when I was lifting him from the bed and supporting in a way that he can take his dinner and medicine, he narrated a story that compelled my eyes to go wet. He told me to keep his head in my lap, I obliged. He started.

My Grandpa to me….

“You know, when you were around 4-5 years old, you had a habit of harassing someone who was going outside the home. You just started crying, shouting to carry you wherever any one goes out, so that you can accompany him and enjoy the outing.

One evening, I was the victim. I was going towards the market to purchase some groceries, and you, as usual, started crying to come with me. Your mom persuaded, papa coerced, but in front of your determination every one gave up, including me. But I made a commitment out of you, that in the course of journey you will walk yourself and never ask me to carry you in my lap or on my shoulder. You readily agreed on these terms and conditions, which I knew, you din’t have any intention to obey it.

We started walking towards market place. Barely 50 steps we have taken, you said, with utter innocence, “Baba Godi” (Grandpa please carry me in your lap while walking). I smiled, but shouted “don’t you remember your promise and if you will not walk then we will return home.Then you reverberated, “Yes, I do remember that but……” and started walking with heavy feat.

Just after nearly 30 steps we have marched forward, you again came back to the same agenda..”Baba Godi!! now I am extremely tired”.

But I was testing your patience and enjoying the expression you were giving, which was just like as a true artist. Then suddenly you spoke something which touched my core of the heart. You said, “baba, don’t you know how little I am, my legs becomes tired after a long walk, so please carry me in your arms/lap. I promise you when I will become young I will also carry you in my lap”.

His narration was over. His head was still in my lap. His eyes were wet. He pronounced. I am looking now “You are fulfilling your promise”.

I was speechless. Pretended to be tough. Gave him the medicine, which was prescribed for him for the night. Requested him to chant and remember the name of the Lord and said good night.

I was in quagmire about to share the event, but thought that many of the readers, once they will read, can relish and find their sweet memory associated with their grandfather/mother.

Life is just emotions. How you perceive emotions. How you respond to the emotions. A special trait, which differentiates the Livings with the Dead.

Isn’t it?