आज जो हुआ सवेरा,
पर सूरज कहाँ है?
अंधेरे में लिपटा
क्यों सारा आसमाँ है?
….अभय….
आज जो हुआ सवेरा,
पर सूरज कहाँ है?
अंधेरे में लिपटा
क्यों सारा आसमाँ है?
….अभय….
जीवन में अगणित फूल खिले
सुख के दिन चार ,
दुःख की कई रात मिले
आशाओं की ऊँची अट्टालिकाएं सजाई
नियति को उनमे , कई रास न आयी
कुछ ही उनमे आबाद हुए
कई टूटे , कई बर्बाद हुए
किसे दोष दूँ मैं ,
किसे दुःख सुनाऊँ
जाने मैं कौन सा गीत गाऊँ
स्वयं की खोज में मैंने
कईयों को पढ़ा
सैकड़ों ज़िंदगियाँ जी ली मैंने
मैं सहस्त्रों बार मरा
सोचा था कि तुम संग,
चिर अन्नंत तक चलोगे
मुझे क्या पता था कि तुम
पग – पग पर डरोगे
किसे मैं जीवन के ये अनुभव सुनाऊँ
जाने मैं कौन सा गीत गाऊँ
ये भ्रम में न रहना कि
मैंने ये दुःख में लिखा है
या अपने आसुंओ को मैंने
स्याही चुना है
ये उनके लिए हैं
जो ज़िंदा लाश नहीं हैं
या उनके लिए है
जिन्हे अभी खुद पर विश्वास नहीं है
अन्नंत आघात हैं मुझपर, फिर भी मुस्कुराऊँ
“विपदाओं में टूटकर बिखरो नहीं”, मैं यही गीत गाऊँ
……….अभय ………
वो रास्ता..
सच्चाईयों से मुँह फेरकर,
मुझपर तुम हँसते गए
दल-दल राह चुनी तुमने,
और गर्त तक धसते गए
खुद पर वश नहीं था तुम्हें ,
गैरों की प्रवाह में बहते गए
जाल बुनी थी मेरे लिए ही,
और खुद ही तुम फँसते गए
नमी सोखकर मेरे ही जमीं की,
गैरों की भूमि पर बरसते रहे
सतरंगी इंद्रधनुष कब खिले गगन में,
उस पल को अब हम तरसते रहे
……….अभय ………..
At many occasions, I have experienced and also heard from different people that they are willing to move forward, yet they find it difficult in doing so due to some past failure, some memories which remains only in imagination, some unpleasant happenings in their life etc etc.
These impediments just work as a drag in their forward march. Yesterday I was discussing this subject with one of my friend. In doing so, few lines came to me and I am presenting it in public domain for your scrutiny and contemplation. I have termed the topic as “Hole in the Boat”. Do let me know your views.. 🙂
नाव में छेद
धारा के विपरीत जाने से
न मैं कभी घबराता हूँ
हवा के वेग और दिशा को भी
चपलता से मैं भांप जाता हूँ
मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि
हैआज सिंधु कितनी वीरान
या आगे मेरा बाट जोहता
है कोई समुद्री तूफ़ान
पर मुझे बस एक बात का डर है
एक बात की खेद है
मेरी नाव को जर्जर करती
इसमें एक छोटी सी छेद है
मैं जितनी तेजी से पतवार चलता हूँ
उतनी ही तेजी से इसमें जल भर आती है
फिर मेरी आधी शक्ति और समय भी
इसे खाली करने में लग जाती है
मैं यात्रा में कुछ दूर ही जा पाता हूँ
फिर वापस प्रस्थान बिंदु पर आता हूँ
अपनी यात्रा फिर से शुरू करने को
मैं विवश हो जाता हूँ
………अभय ……..
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