मंजिल
अकेले ही तुम निकल पड़े ,
कितनी दूर , कहाँ तक जाओगे ?
बैठोगे ज्यों किसी बरगद की छावों में
मुझे याद कर जाओगे
मैं तेज नहीं चल सकती
मेरी कुछ मजबूरियां हैं
और यह भी सच है, जो मैं सह न सकुंगी
तेरे मेरे दरमियाँ, ये जो दूरिया हैं
कुछ पल ठहरते
तो मेरा भी साथ होता
सुनसान राहों में किसी अपने का
हाथों में हाथ होता
कोई शक नहीं तुम चल अकेले
अपनी मंज़िल को पाओगे
पर देख मुझे जो मुस्कान लबों पे तेरे आती थी
क्या उसे दुहरा पाओगे ?
…….अभय ……..
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