मंजिल

मंजिल  

अकेले ही तुम निकल पड़े ,
कितनी दूर , कहाँ तक जाओगे ?
बैठोगे ज्यों किसी बरगद की छावों  में
मुझे याद कर जाओगे

मैं तेज नहीं चल सकती
मेरी कुछ मजबूरियां हैं
और यह भी सच है, जो मैं सह न सकुंगी
तेरे मेरे दरमियाँ, ये जो दूरिया हैं

कुछ पल ठहरते
तो मेरा भी साथ होता
सुनसान राहों में किसी अपने का
हाथों में हाथ होता

कोई शक नहीं तुम चल अकेले
अपनी मंज़िल को पाओगे
पर देख मुझे जो मुस्कान लबों पे तेरे आती थी
क्या उसे दुहरा पाओगे ?

…….अभय ……..

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आठ मार्च

wmd
Credit: greatinspire.com

 

आठ मार्च

ममता का ऐसा नज़ारा
क्या दिखता कहीं जहाँ में
स्नेह का सागर उफनते देखा है
मैंने माँ की आँखों में

बहने जब राखी से
कलाइयाँ सजाती हैं
भुजाएं मानों स्वतः ही
असीम शक्ति पाती हैं

कष्टों का पहाड़ जब
सीधे सिर पर आता है
जग छोड़ दे अकेला ,
तब भी वो साथ निभाती है
हाँ वो , धर्म पत्नी कहलाती है

त्याग का ऐसा सामूहिक नज़ारा
शायद ही कहीं नज़र आता है
बचपन से जवानी जिस घर में वो बिताती हैं
एक झटके में सबकुछ छोड़ आती हैं
हाँ वो, बेटी कहलाती है

चेहरा शर्म से झुक जाता है
आँखे नम हो जाती है
जब समाचारपत्र में
भ्रूणहत्या, बाल विवाह, घरेलू हिंसा, और रेप की ख़बरें
अब भी जगह बनाती है
स्मरण रहे कि,

युद्धक्षेत्र में बन
रणचंडी भी वो आती है
शत्रुओं के वक्ष में
अपनी शूल धसाती है

ओलिंपिक में जब हम
मुह लटकाये भाग्य कोसते होते हैं
तो वे कर पराक्रम
भारत की लाज बचती है

भारत सोने की चिड़िया या विश्व गुरु
तभी तक कहलाती है
नारी का सम्मान जब तक
यह धरा कर पाती है
………अभय ……….