तुम भीड़ में होगी..

तुम भीड़ में होगी,
मैं अक्सर खो जाऊंगा
तुम तन्हाई में होगी
तो बहुत याद आऊंगा
ठीक वैसे कि जैसे
सितारे दिन में
खो से जाते हैं
काली अंधेरी रात में फिर से
उभर के आते हैं
~अभय

Oh gosh!!! Finally gotta chance to post something. Last two years were extremely hectic for me(was pursuing my masters). I was unable to post something significant during those days. I regret it. I know there will be a disconnect with my fellow readers, but I am sure you all must haven’t forgotten me 🙂

Would love to see your posts too and also looking forward to hear from new connections 🙂

Cheers

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कभी कभी तो…

कभी कभी तो आँखों से

अश्रुधार अनवरत बह जाने दो

क्या पता कि अतीत के

कई दर्द भी उनमें धुल जाये

.

कभी कभी तो खुद की नौका

उफनते सिंधु में उतर जाने दो

क्या पता कि लहरों से टकराकर

उस पार किनारा मिल जाये

.

कभी कभी किसी मरुभूमि को

अकारण ही जल से सींचो

क्या पता कि कोई सूखा पौधा

फिर से पल्लवित हो जाये

.

कभी कभी अनायास ही

अन्यायी से सीधे टकराओ

क्या पता कि कई मुरझाया चेहरा

एक बार फिर से मुस्कुरा जाये

.

कभी कभी तो खुद से ज़्यादा

नियति पर भरोसा रखकर देखो

क्या पता कि सब संदेह तुम्हारा

क्षणभर में क्षीण हो जाये

.

कभी कभी तो संभावनाओं को

विश्वास से भी बढ़ कर तौलो

क्या पता कि आशाओं की चिंगारी

इतिहास नया कोई लिख जाये

.

कभी कभी तो ईश चरण में

शीश झुकाकर के  देखो

क्या पता फिर और कहीं

मस्तक तुमसे न झुकाया जाये

…..अभय…..

It took me some days to finally compose this poem. Hope you will like it.विशुद्ध हिंदी के पाठकों से विशेषअनुरोध है कि अपनी राय से जरूर अवगत कराएं.🙂

जमी बर्फ़ ..

हर रोज़  कई  बातें

तुमसे  मैं  कर  जाता  हूँ

कुछ  ही  उनमें  शब्द  बनकर

जुबां तक आ पाती हैं

कई उनमें  से  मानो

थम  सी  जाती  हैं

ह्रदय  में  कोई  बर्फ़  जैसी

 ज़म सी  जाती  है!

रिश्तों  की  गर्माहट  पा दबे  शब्द  भी

कभी तो  निकलेंगे

सभी  पुरानी  जो  बर्फ़  जमीं  है

कभी  तो  वो  पिघलेंगे

पिघली हुई  बातें  जब

कल-कल  कर  बह  जाएँगी

तब  भी  क्या  तुम  किसी  शैल  सा

खुद  को  अडिग  रख  पाओगी

या  नदी  किनारे  की  मिट्टी  सी

खुद ही  जल  में मिल  जाओगी

तुम भी पिघल जाओगी

…….अभय…….

ढूँढता हूँ..

अमावस की ये रात घनेरी, मैं चाँद ढूंढता हूँ
डर के छुपा जहाँ है शेर बैठा, मैं वो मांद ढूंढता हूँ

सदियों से फैले सन्नाटों में, मैं कोई पैगाम ढूंढता हूँ
सारे नियमों को तोड़ कर, मैं अंजाम ढूँढता हूँ

उलझे सपनों की लम्बी सफर में, मैं राह ढूँढता हूँ
हर झूठी हंसी में तेरी , मैं छुपी कराह ढूँढता हूँ

….. अभय…..

Hello to my fellow bloggers. I came here after a long hiatus, as I was engaged in some hectic work. Hope you all would be fine. I missed your writings, and hoping you also would have missed my poems 😀 Would try to be in touch more frequently. Do let me know your views.

ढोंग ..

ढोंग

ढोंग करना अच्छा लगता है
तब, जब कि हम
धनवान हों तो, निर्धन का
ज्ञानी हों तो, अज्ञानी का
विनम्र हो, फिर अभिमानी का
होश में हैं, बेहोशी का
मदिरा छुई नहीं, मदहोशी का
राज़ पता हो, फिर ख़ामोशी का
जगे हुए हों, फिर सोने का
हर्षित मन हो, फिर रोने का
हरपल संग हों, पर उन्हें खोने का
भक्त हो ,तो अभक्ति का
कोमल ह्रदय हो, तब सख्ती का
मुखर हो, फिर मौन अभिव्यक्ति का
ढोंग करना अच्छा लगता है
…..अभय……

अब भी मेरे सपनो में आती हो…

boy
Photo Credit:onehdwallpaper.com

अब भी मेरे सपनो में आती हो…

हाथ पकड़ती थी वो,

कुछ दूर संग मेरे आती थी

देख न ले दुनिया,

जग से नज़रें चुराती थी

मेरे मन के हर कोने में

आशियाँ बनाती जो

तुम अब भी मेरे सपनो में आती हो…


अक़्सर लंबी थी जो राहें लगती,

संग तेरे सिमट जाती थी

जिसकी हर हँसी,

पीहू की याद दिलाती थी

हर सावन की पहली बारिश में,

संग मेरे भीग जाती जो

तुम अब भी मेरे सपनो में आती हो…


दिन तो बीते जैसे-तैसे,

पर रात ठहर जाती थी

अनायास ही मन को मेरे,

याद तेरी आती थी

हर पल हर क्षण संग हो मेरे,

एहसास कराती जो

तुम अब भी मेरे सपनो में आती हो…

………..अभय………..

सुना है चुनाव है….

सुना है चुनाव है,
बहुत निकट है
परस्थितियां भी अबकी
घोर विकट है

भवसागर की छोड़ो,
किसे पड़ी है?
यहाँ चुनावी नैया
मझदार खड़ी है

“विकास” रूपी पतवार
गर्त में गया है
प्रतिमा के सिवा नहीं,
कुछ भी नया है

रफाएल पर विपक्ष का
पुरजोर है हमला
“भ्रष्टाचार मिटेगा”
क्या ये भी था जुमला?

जीवन में सहर्ष जो कभी
राम नहीं गाते हैं
मरणासन्न हो उन्हें क्या
राम याद आते हैं?

…….अभय ……

Note: A true poet doesn’t side with any establishment. Neither Left nor Right. Read it in this perspective.

मैं, मेरी बहना और ये राखी …

संग आज नहीं हो तुम मेरे
ये कैसी होनी है?
मिठास नहीं है मुख में मेरे
कलाई भी सूनी है!

उदास मन से मैंने उसे
वीडियो कॉल  लगाया
राखी पर घर में न होने की
अंतर्व्यथा बताया

सोचा था मन की व्यथा
उधर भी वैसी ही होगी
मेरी अनुपस्थिति तो शायद
उसे भी खूब खली होगी

पर शैतानी हँसी देख
मैं भौचक्का रह गया
राखी के अवसर पर डिमांड  सुनकर
मैं हक्का-बक्का हो गया

कहा उसने
“तुम हो कहीं भी, अमेज़न पर मेरे लिए
आज ही iPhone X आर्डर कर  देना
और हो सके तो मेरी तरफ से
कलाई पर, एक राखी बांध लेना”

मैंने मन में सोचा
“क्या घोर कलयुग
इतनी जल्दी ही आ गया
भाई बहन के दिव्य रिश्ते को
भौतिक iPhone X खा गया !!!

😂😂😂

………अभय…….

क्यों भाईयों, क्या आपके संग भी ऐसा ही हुआ..और बहनों अपने कुछ ऐसा ही किया …….

कागज़ी पतंग

कागज़ी पतंग

मैं धरती पर पड़ा था
रद्दी कागज का जैसे कोई टुकड़ा
बना पतंग आसमान में मुझको
आपने भेजा,
ढील दी
दूसरे दानवी पतंगों से मुझे बचाया
मैं ऊपर चढ़ता रहा
बढ़ता गया
बादलों से भी ऊपर
अनंत गगन में
उन्मुक्त, स्वतंत्र
कि अब मुझमें ऊंचाई का
नशा छा गया है
कि अब मुझे धरती भी नहीं दिखती
दिखता है तो केवल
स्वर्णिम आकाश
और ये भी नहीं दिखता कि
मेरा डोर किसी ने थामा था
थामा है
छूटी डोर तो मेरा क्या होगा!
होगा क्या?
मैं फिर वही
रद्दी कागज़ का टुकड़ा

……अभय…..

बस तेरा इंतज़ार है..

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Credit: Google Image

धम से गिरे
धरनी पर
शिखर से,
ज़ख्म गहरा हुआ
चोट हरा हुआ
पर गिरने का यह पहला
वाक़या तो न था
कई पहले भी लुढ़के
गिरे गर्त में
वर्षों तक
सिसकते रहे
मरणासन्न रहे
संवेदनहीन रहे
निर्जीव सा गौण रहे
व्योम सा मौन रहे
पर लड़ते रहे
जूझते रहे
झुलसते रहे
आपदाओं में
विपदाओं से
लोगों की विष भरी
बोली से
आलोचकों की अगणित
टोली से
तो तुम जो गिर गए
तो इसमें नया क्या था?
कि अब तुम उठते ही नहीं
कि तन के ज़ख्म भी
जब सूखते हैं
हम उसे कुरेदते नहीं हैं
तो मन के ज़ख्म पर
ये अत्याचार क्यों?
स्मरण रहे कि
जो शिखर पर तुम पहुंचे थे
तब भी पुरुषार्थ लगा था
फिर से पुरुषार्थ लगेगा
कि तुममें जो नैसर्गिक है
वो भला तुमसे कौन लेगा?
कि अब दुर्बलता छोड़ो
कि सब तैयार हैं
हिमालय की
सबसे ऊँची चोटी को
बस तेरा इंतज़ार है

…….अभय …….

कविता का भाव आप लोगों तक पहुंचा हो, तो अपने भाव मुझ तक पहुँचाना न भूलें 🙂

शब्द सहयोग:
गौण: Subordinate, Secondary
व्योम: Sky, Space
नैसर्गिक: Inherent