कभी कभी तो…

कभी कभी तो आँखों से

अश्रुधार अनवरत बह जाने दो

क्या पता कि अतीत के

कई दर्द भी उनमें धुल जाये

.

कभी कभी तो खुद की नौका

उफनते सिंधु में उतर जाने दो

क्या पता कि लहरों से टकराकर

उस पार किनारा मिल जाये

.

कभी कभी किसी मरुभूमि को

अकारण ही जल से सींचो

क्या पता कि कोई सूखा पौधा

फिर से पल्लवित हो जाये

.

कभी कभी अनायास ही

अन्यायी से सीधे टकराओ

क्या पता कि कई मुरझाया चेहरा

एक बार फिर से मुस्कुरा जाये

.

कभी कभी तो खुद से ज़्यादा

नियति पर भरोसा रखकर देखो

क्या पता कि सब संदेह तुम्हारा

क्षणभर में क्षीण हो जाये

.

कभी कभी तो संभावनाओं को

विश्वास से भी बढ़ कर तौलो

क्या पता कि आशाओं की चिंगारी

इतिहास नया कोई लिख जाये

.

कभी कभी तो ईश चरण में

शीश झुकाकर के  देखो

क्या पता फिर और कहीं

मस्तक तुमसे न झुकाया जाये

…..अभय…..

It took me some days to finally compose this poem. Hope you will like it.विशुद्ध हिंदी के पाठकों से विशेषअनुरोध है कि अपनी राय से जरूर अवगत कराएं.🙂

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जमी बर्फ़ ..

हर रोज़  कई  बातें

तुमसे  मैं  कर  जाता  हूँ

कुछ  ही  उनमें  शब्द  बनकर

जुबां तक आ पाती हैं

कई उनमें  से  मानो

थम  सी  जाती  हैं

ह्रदय  में  कोई  बर्फ़  जैसी

 ज़म सी  जाती  है!

रिश्तों  की  गर्माहट  पा दबे  शब्द  भी

कभी तो  निकलेंगे

सभी  पुरानी  जो  बर्फ़  जमीं  है

कभी  तो  वो  पिघलेंगे

पिघली हुई  बातें  जब

कल-कल  कर  बह  जाएँगी

तब  भी  क्या  तुम  किसी  शैल  सा

खुद  को  अडिग  रख  पाओगी

या  नदी  किनारे  की  मिट्टी  सी

खुद ही  जल  में मिल  जाओगी

तुम भी पिघल जाओगी

…….अभय…….

अपनी राह../ My Way

अपनी राह..

राहों को अपनी, मैं खुद ढूंढ लूंगा

बन पथप्रदर्शक तुम, मुझे न उलझाओ||

मेरे उम्मीदों को अब, पर जो लगें है

अपनी आसक्तियों की, न जाल बिछाओ||

कष्टों का पहाड़ सीधे सिर पर सहा है

राह के रोड़ों से तुम, मुझे न डराओ||

सच है जो कड़वा, मैंने खुद चख लिया है

उसपर झूठ की मीठी तुम, परत न चढ़ाओ||

मंज़िल है मुश्किल औ’ लंबा सफर है

जो बीच में हो जाना, शुरू से साथ न आओ||

ज्ञान की दीपक अब जो जली है

अपने आंसुओं से उसे न बुझाओ||

जाना जहाँ है, राहों में कांटे बिछे हैं||

मेरे लिए अभी फूलों की हार न लाओ||

निराश लोगों की लम्बी पंगत लगी है

सांत्वना भरे गीत तुम, उन्हें ही सुनाओ||

नम्रता में मैंने जीवन है जीया

मेरे खुद पे भरोसे को, मेरा अहम् न बताओ||

………..अभय…………

My Way

I will carve out my own way

Don’t pretend to be my guide and confuse me

My aspirations have found its wings

Don’t entrap it by your frail attachment

I have already faced mountainous hardships

Don’t scare me, with the petty pebbles of the road

I have already tasted the bitter truth

Don’t present it to me by coating sugar on it

All my ignorance is burning in the bonfire of Knowledge

Don’t extinguish it with your incessant tears

Destination is distant and path is treacherous

Don’t accompany me, if you are thinking of leaving in midway

There seems to be a long queue of despondent

Don’t console me, go and cheer them up

I have spent my whole life in humility

Don’t term my self-belief, as an act of arrogance

@Ab

ढोंग ..

ढोंग

ढोंग करना अच्छा लगता है
तब, जब कि हम
धनवान हों तो, निर्धन का
ज्ञानी हों तो, अज्ञानी का
विनम्र हो, फिर अभिमानी का
होश में हैं, बेहोशी का
मदिरा छुई नहीं, मदहोशी का
राज़ पता हो, फिर ख़ामोशी का
जगे हुए हों, फिर सोने का
हर्षित मन हो, फिर रोने का
हरपल संग हों, पर उन्हें खोने का
भक्त हो ,तो अभक्ति का
कोमल ह्रदय हो, तब सख्ती का
मुखर हो, फिर मौन अभिव्यक्ति का
ढोंग करना अच्छा लगता है
…..अभय……

गीत गाऊँ

जीवन में अगणित फूल खिले
सुख के दिन चार ,
दुःख की कई रात मिले
आशाओं की ऊँची अट्टालिकाएं सजाई
नियति को उनमे , कई रास न आयी
कुछ ही उनमे आबाद हुए
कई टूटे , कई बर्बाद हुए
किसे दोष दूँ मैं ,
किसे दुःख सुनाऊँ
जाने मैं कौन सा गीत गाऊँ

स्वयं की खोज में मैंने
कईयों को पढ़ा
सैकड़ों ज़िंदगियाँ जी ली मैंने
मैं सहस्त्रों बार मरा
सोचा था कि तुम संग,
चिर अन्नंत तक चलोगे
मुझे क्या पता था कि तुम
पग – पग पर डरोगे
किसे मैं जीवन के ये अनुभव सुनाऊँ
जाने मैं कौन सा गीत गाऊँ

ये भ्रम में न रहना कि
मैंने ये दुःख में लिखा है
या अपने आसुंओ को मैंने
स्याही चुना है
ये उनके लिए हैं
जो ज़िंदा लाश नहीं हैं
या उनके लिए है
जिन्हे अभी खुद पर विश्वास नहीं है
अन्नंत आघात हैं मुझपर, फिर भी मुस्कुराऊँ
“विपदाओं में टूटकर बिखरो नहीं”, मैं यही गीत गाऊँ

……….अभय ………

When to speak…Whom to speak

बसंत तो अब बीत चुका है

कुहू तो बस अब मौन रहेगा

क्षितिज पर कालिख बदरी छायी है

सब दादुर अब टर-टर करेगा

                                       ~अभय

 

Spring has gone

Cuckoo will not sing any more

Dark clouds are hovering in the sky

Oh! It’s time for the frogs

                                                                                                 ~Abhay

 

कुहू- कोयल
दादुर- मेढ़क

आप पंक्तियों को खुद से जोड़ पाए तो मैं अपनी सफलता मानूंगा..

बस तेरा इंतज़ार है..

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Credit: Google Image

धम से गिरे
धरनी पर
शिखर से,
ज़ख्म गहरा हुआ
चोट हरा हुआ
पर गिरने का यह पहला
वाक़या तो न था
कई पहले भी लुढ़के
गिरे गर्त में
वर्षों तक
सिसकते रहे
मरणासन्न रहे
संवेदनहीन रहे
निर्जीव सा गौण रहे
व्योम सा मौन रहे
पर लड़ते रहे
जूझते रहे
झुलसते रहे
आपदाओं में
विपदाओं से
लोगों की विष भरी
बोली से
आलोचकों की अगणित
टोली से
तो तुम जो गिर गए
तो इसमें नया क्या था?
कि अब तुम उठते ही नहीं
कि तन के ज़ख्म भी
जब सूखते हैं
हम उसे कुरेदते नहीं हैं
तो मन के ज़ख्म पर
ये अत्याचार क्यों?
स्मरण रहे कि
जो शिखर पर तुम पहुंचे थे
तब भी पुरुषार्थ लगा था
फिर से पुरुषार्थ लगेगा
कि तुममें जो नैसर्गिक है
वो भला तुमसे कौन लेगा?
कि अब दुर्बलता छोड़ो
कि सब तैयार हैं
हिमालय की
सबसे ऊँची चोटी को
बस तेरा इंतज़ार है

…….अभय …….

कविता का भाव आप लोगों तक पहुंचा हो, तो अपने भाव मुझ तक पहुँचाना न भूलें 🙂

शब्द सहयोग:
गौण: Subordinate, Secondary
व्योम: Sky, Space
नैसर्गिक: Inherent

एक और दिसंबर बीत गया..

Pondi
Sun Rise or Sun Set? Clicked it in Pondicherry, Bay of Bengal

एक और दिसंबर बीत गया

अभी तो सूरज निकला ही था
और झट में फिर वो डूब गया
एक और दिसंबर बीत गया

अभी बसंत की हुई थी दस्तक
पर अब, पत्ता पत्ता सूख गया
एक और दिसंबर बीत गया

जनवरी में कई कस्में खायी थी हमने
पर अगणित बार वो टूट गया
एक और दिसंबर बीत गया

लाख कोशिशें कर उन्हें मनाया था हमने
पर एक नादानी से वो, हरपल के लिए रूठ गया
एक और दिसंबर बीत गया

हार की कई गाथाएं लिख दी इसने
पर आशाओं के कई पन्नों को भी जोड़ गया
एक और दिसंबर बीत गया

सोचा शाश्वत सा यह पल है
पर बारह किश्तों में ही पीछा छूट गया
एक और दिसंबर बीत गया

स्मृति पटल पर कुछ धुंधले चेहरे
और कई नई छवि को जोड़ गया
एक और दिसंबर बीत गया

स्थिरता मरण, गति जीवन है
शायद से वो, चीख-चीख कर बोल गया
एक और दिसंबर बीत गया

………अभय ………

 

जाने क्यों ?

जाने क्यों ?

 

तुम दीपक की लौ सी सुलगती हो

जाने क्यों

मैं मोम सा पिघलता हूँ!

 

तुम बारिश में मचलती हो

जाने क्यों

मैं हर दो कदम पर फिसलता हूँ!

 

तुम बिजली सी चमकती हो

जाने क्यों

मैं तड़ित चालक बनता हूँ!

 

तुम बिन कहे सब कह जाती हो

जाने क्यों

मैं चीखकर भी मौन रहता हूँ!

 

…….अभय……

 

शब्द सहयोग:

तड़ित चालक: Lightening arrester; its used as a tool which  arrest or capture lightening yet doesn’t store it, rather let it pass through itself in to the ground. Now use it in context of the poem, do you find any relevance 🙂

पढ़ने के लिए शुक्रिया….