मेरा मन..

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  मेरा मन जहाज़ सा,
उड़ने वाला नहीं
तैरने वाला,
पानी का जहाज
और तुम सागर सी,
हिन्द महासागर नहीं
प्रशांत महासागर
अथाह, असीमित, अन्नंत
मन चंचल था मेरा,
तैरता तुममें
कभी शांत
कभी हिचकोले करता हुआ
पर वह अब डूब रहा है
गर्त में, तह तक
जैसे किसी सागर में कोई
जहाज डूबता है,
अस्तित्व को भुला
जैसा कि पहले
कोई, कुछ था ही नहीं
केवल सागर का सन्नाटा
और लहरों के हिचकोले
सिर्फ तुम ही तुम,
मैं स्तब्ध, शुन्य, मौन!

……..अभय…….

 

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मंजिल

मंजिल  

अकेले ही तुम निकल पड़े ,
कितनी दूर , कहाँ तक जाओगे ?
बैठोगे ज्यों किसी बरगद की छावों  में
मुझे याद कर जाओगे

मैं तेज नहीं चल सकती
मेरी कुछ मजबूरियां हैं
और यह भी सच है, जो मैं सह न सकुंगी
तेरे मेरे दरमियाँ, ये जो दूरिया हैं

कुछ पल ठहरते
तो मेरा भी साथ होता
सुनसान राहों में किसी अपने का
हाथों में हाथ होता

कोई शक नहीं तुम चल अकेले
अपनी मंज़िल को पाओगे
पर देख मुझे जो मुस्कान लबों पे तेरे आती थी
क्या उसे दुहरा पाओगे ?

…….अभय ……..

सुनहरा धागा …

आज विश्व काव्य दिवस है, मतलब #World Poetry Day. आप सभी को बधाई. आज मेरी लिखी कुछ पंक्तियाँ आपके समक्ष …..धागे को विश्वास या भरोसे से बदल कर देखिये और इस कविता में इसकी सटीकता को ढूंढिए  …

 

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Background Image Credit: Google Image.

अल्हड़ होली

नमस्कार मित्रों!!!

आशा है, आपका फागुन माह उत्साह में बीत रहा होगा. कल वर्डप्रेस से notification आया कि मेरे ब्लॉग पर followers की संख्या 200 के पार पहुँच गयी है, जानकार ख़ुशी हुई. जो सारा खेल दो तीन महीने पहले शुरू हुआ था अब आप सब लोगों द्वारा सराहा जा रहा है. प्रोत्साहन किसे अच्छा नहीं लगता! आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद..आशीष बनाये रखें..

ब्लॉग लिखने का सबसे अच्छा पहलु मुझे यह लगा कि इसकी पहुँच वैसे लोगों तक भी होती है जिन्हें आप पहले से जानते नहीं है और फिर जो response मिलता है, वह unbiased और straight forward होता है. कई बार response मजेदार भी होते हैं. ऐसा ही एक response आपसे साझा करता हूँ. एक ने कहा (नाम नहीं लूंगा, क्योंकि वह भी पढ़ेगा और privacy सबको पसंद है 😛 ) कि ” भाई आपकी कविताओं में विरह का भाव बहुत ज़्यादा रहता है, कभी प्रेम पर भी लिखिए”. मैंने अपने ब्लॉग पर प्रकशित कविताओं के संग्रह को वापस मुड़कर देखा. पाया कि कुछ कवितायेँ जैसे मॉनसून और मैंमैं और तुमविरह गीतधीरज … में यह भाव तो था, पर मुझे यह लगता है कि विरह और प्रेम की कविता को आप अलग करके नहीं देख सकते, क्या देख सकते हैं?

खैर छोड़िये, मैंने उस बंधु को वादा किया था कि मेरी अगली कविता में आपकी मांग को पूरा करने का प्रयास करूँगा, तो आज कि कविता आप सबके समक्ष प्रस्तुत है . होली सप्ताह भर दूर है , सो मैंने सोचा कि उसके परिवेश को ही चुना जाए.. आप सभी पढ़िए और मुझ तक पहुँचाना मत भूलिये कि कैसी लगी….

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Credit: Picked from internet 

अल्हड़ होली

रंग जो तुम्हें पसंद हो
मैं वही रंग ले आऊंगा
फिर तुम्हारे गालों पर
धीरे से उसे लगाऊंगा

पेड़ों की पत्तियों से
हरा रंग मिल जाएगी
सूरज में जो छुपी है लाली
वह भी बाहरआएगी
काँटों की परवाह नहीं है
गुलाबी गुलाल समां में छाएगी
और इससे भी जो मन न भरा तो
इंद्रधनुष धरा पर आएगी

यह मत कहना कि इस दफे
नहीं खेलनी होली है
सखियों बीच , बच न सकोगी इस बार तुम
कहीं बड़ी मेरी टोली है
अगर छुपी जो तुम किसी कमरे में तो
थोड़ी अव्यवस्था सह लेना
और हो सके तो एक नए दरवाजे की
पहले से ही व्यवस्था कर लेना :-p

बेहतर यही होगा कि
पहले से ही होली को तैयार रहो
रंग भरी पिचकारी रखो और
मुट्ठी में गुलाल भरो

नोक झोक और तकरार रहेगी
रंग गुलाल उड़ेंगे
प्यार की भी फुहार बहेगी
खेलेंगे हम ऐसी होली
जो वर्षों तक याद रहेगी

……………..

बसंत

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Image Credit: Dinesh Kumawat

बसंत

आज मेरे आँगन में
आम के पेड़ पर मंजर आया है
जाने वो मंज़र कब आएगा
जब तुम मेरे आँगन में आओगे !

उसी पेड़ की किसी शाख पे बैठे,
कोयल ने राग भैरवी गाया है
जाने तुम कब आकर आँगन में
राग बासंती गाओगे!

मंज़र की ख़ुशबू में
शमा पूरी तरह है डूबा
जाने कब तेरी महक
घर आँगन में छाएगा
वह मंज़र कब आएगा !

सूरज ढली, चाँद शिखर पर आयी
विचलित हुई, तुम्हें आवाज़ लगायी
पदचाप सुनी, भागी चली आयी
पर अब भी आंगन सूना है!!!
वह मंज़र कब आएगा
जब तुम आँगन में आओगे!

मंज़िल मेरी ….

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Clicked it in Bay of Bengal 

मंज़िल मेरी ….

हूँ किस दिशा से आया,
जाना मुझे किधर है
हो मिलन जहाँ तेरा मेरा,
मंज़िल मेरी उधर है

आसमान से उतरी
और जब धरा पे ठहरी
अमावस की वो काली रात मानो
पूर्णमासी में हो बदली
कैसा अनुपम और मधुर
होता वो पहर है
हो मिलन जहाँ तेरा मेरा
मंज़िल मेरी उधर है

दूबों पर पड़ी ओस जैसी
हो तुम निर्मल
फूलों की पंखुड़ियों जैसी
हो तुम कोमल
मेरे मन से टकराती हर पल
तेरी यादों की लहर है
हो मिलन जहाँ तेरा मेरा
मंज़िल मेरी उधर है

नज़रों से होकर ओझल
जाने कहाँ भटकती
बिन देखे तुम्हें एक पल भी
साँसे मेरी अटकती
लौट चलो हैं जहाँ शहर मेरा
कि वहीं कहीं, तेरा भी तो घर है
हो मिलन जहाँ तेरा मेरा
मंज़िल मेरी उधर है

………अभय …………

 

Hello Friends, Once again I have given a try to translate my poem in English. Hope those who don’t read or understand Hindi, it may help them a bit to get an idea behind it.

My Destiny…

Don’t know from where I have come,

Nor even know, where I have to go

Where our tryst will be

I consider it as my destiny

 

When you appeared from the sky

And stayed on earth

Even the darkest of nights

Turns in to full moon light

How incredible and sweet is that time!

Where our tryst will be

I consider it as my destiny.

 

You are pristine,

Same as the dew on the new blade of grass

You are delicate,

Same as flower petals.

My mind is always shoved

By waves of your memory.

Where our tryst will be

I consider it as my destiny

 

Where do you wander

By staying away from my sight

Without seeing you even for a second

I couldn’t breath right

Come and return to my city

Coz somewhere around there, your home too lies

Where our tryst will be

I consider it as my destiny.

 

विरह गीत

साहित्य के जानकारों और बुद्धिजीवियों का मानना हैं  “विरह में प्रेम अपने शिखर पर होता है”. ख़ैर, मैं कोई साहित्यकार या विचारक तो हूँ नहीं कि इस कथन पर टीका या टिपण्णी करूँ, आप तक एक कविता ही पहुँचता हूँ. ये ताज़ी तो नहीं है, मैंने पहले कभी लिखी थी और एक-दो गोष्टि में भी सुना चूका हूँ. पर वर्डप्रेस पर पहली बार लिख रहा हूँ  🙂 आशा है आपको पसंद आएगी…..

विरह गीत

प्रियतम तेरे प्रेम में प्यासे
बैठा था मैं पतझर से
आँखों से अब अश्रु भी नहीं गिरते
सूख गए बंजर से

जब विरह की हुई शुरुआत
लगा ह्रदय पर शूल सम घात
प्राणवायु के बहने पर भी
न कटते थे मेरे दिन रात

दिन कटा सोचकर तेरे
यादों के अविचल मेले
मचल पड़ा मेरा मन फिर से
सावन में मिलने को अकेले

पर, दिल की कहा सुनी जाती है
यह तो शीशा है शीशा
विरह के पत्थर से टकराकर
चूर चूर हो जाती हो

जाने ये मंजर क्यों आता है
जब कोई अपना दूर जाता है
बेमौशम बारिश होती है
आँखे बादल में बदल जाती है

………..अभय………..

 

शब्द सहयोग
विरह: Separation
प्राणवायु: Oxygen

मैं, मेरी परछाई

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शनिवार. वीकेंड का पहला दिन, दिन भर की फुरसत और फुरसत में दिमाग कुछ ज्यादा चलता ही है. आज चला और कुछ विचार निकले. फिर उसने एक कविता का रूप लिया.आपके सामने है. आज ही लिखी , और सोचा आज ही पोस्ट कर दूँ, ज़्यादा रिव्यु नहीं कर पाया…

अग्रिम चेतावनी: प्रेमी प्रेमिका मेरे कविता की “परछाई” में अपने प्रेमी प्रेमिका को ढूंढने का प्रयास न करें, वरना कविता के अंत में अफ़सोस होगा  😜😛

मैं, मेरी परछाई

मैं, मेरी परछाई
आज शाम संग बैठे थे
भीड़ से दूर…
एक दूजे के करीब…

परछाई कहने लगी ,
प्रश्न है बहुत दिनों की ,
इज़ाज़त हो तो बयां करूँ
मैं हँसा और हँस के बोला
पूछना, जो पूछना हो ?

उसने बोला

“सबसे करीब तुम्हारे
बोलो कौन है ?
शोर मचाती है जो मन में
पर जुबान पर मौन है ?”

जो मैं कुछ बोलता ,
मन की गठरियों को
सामने उसके खोलता
उसके पहले वो बोल पड़ी
“अरे वो मैं हूँ पगले , मैं हूँ “!!

मैं थोड़ा चकराया ,
मासूमियत भरे उत्तर पर
मंद मंद मुस्काया
और पूछा
“वो कैसे ! फरमाइए “
अपने विचार पर ज़रा
LED वाला प्रकाश तो लाइए

भावना में वो बह गयी ,
और फिर जाने मुझसे क्या क्या कह गयी ,
आपको मैं सुनाता हूँ
बदले में आपका पूरा अटेंशन चाहता हूँ

वो बोली
“संग तुम्हारे हूँ तब से ,
है वज़ुद तुम्हारा जब से ,
तुम चलते हो
मैं चलती हूँ
रुकने से थम जाती हूँ

बिना अपेक्षा के आशा के
साथ तुम्हारे रहती हूँ
दुःख हो या सुख हो
हर भाव मैं सहती हूँ
कितने सावन बीत गए ,
और जितने भी सावन आयेंगे
जो कोई रहेगा साथ तुम्हारे तो
वो मैं हूँ बस मैं हूँ “
मैं बोल पड़ा
“बस कर पगली
अब क्या रुलायेगी ?
इतने दिनों की कहानी
सब ही आज कह जाएगी “

भावुक होता देख उसे
मैं बोला चलो चलते हैं
गाल फूला के आँख झुका के
संग मेरे हो चली

निकल पड़ा घर की ओर
सूरज भी ढलने लगा था
परछाई लंबी होने लगी थी
मैं छोटा लगने लगा था

तभी अचानक
अँधेरा छाया ,
ओर मैं खुद को अकेला पाया

कहाँ गयी मेरी परछाई ?
जो वफाई की दे रही थी दुहाई ?
अँधेरा आते ही सरक गयी
पतली गली से खिसक गयी

तभी मन में विचार आया ,
कभी परछाई आपकी ,
आपसे भी लंबी हो जाती है ,
पर बिन प्रकाश के वो भी ,
साथ छोड़ जाती है .
कोई साथ रहता जो अंधकार में आपके
वो आपकी  परछाई भी नहीं है
“केवल आप हो, और कोई नहीं है”
अब प्रश्न है कि आप कौन हो ?

…………अभय…………

अनुभव

कुछ दिनों पहले मुझे एक आध्यात्मिक  कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला. उसका एक भाग सांस्कृतिक भारत के प्रदर्शन को समर्पित था. उस कार्यक्रम में भारत के कुछ सांस्कृतिक नृत्य जैसे भरतनाट्यम, ओडिशी और कुचिपुड़ी प्रस्तुत किये गए. कार्यक्रम की काफी सराहना हुई. पर सच कहूँ तो मुझे नृत्य में उतनी रूचि न होने के कारन, मैंने कार्यक्रम में उतना ध्यान नहीं दिया. सांस्कृतिक कार्यक्रम समाप्त हुआ और अंत में मुख्य वक्ता का उद्बोधन हुआ. मेरे मन में उनके प्रति विशेष सम्मान है और इसलिए उनके उद्बोधन का इंतज़ार भी था. उनके उद्बोधन की एक पंक्ति ने मुझे कला के प्रति दूसरे ढंग से सोचने पर मजबूर किया. उन्होंने कहा  ” We should not crave for defeating the world through arms and ammunition, rather we should try to win them through our Incredible Culture.” (हमें विश्व को हथियारों और असला बारूदों से नहीं हराना है, बल्कि उनको अपनी अतुल्य संस्कृति से जीतना  है)

घर लौटा और सोचा तो उनकी बात बहुत ही प्रासंगिक लगी. अमेरिका आज विश्व में सुपर पावर है इसका मतलब सिर्फ यह नहीं की उसकी सिर्फ आर्मी  शक्तिशाली है बल्कि इसका असर अलग अलग आयामो में भी  दिखता है. ब्लू जीन्स, मैकडोनाल्ड या सबवे में खाना, अमेरिकन बैंड को सुनना, विश्व की अर्थव्यवस्था को डॉलर में आंकना इत्यादि सब सांस्कृतिक पहलु ही तो हैं. मैंने आज तक एक भी ऐसा उदहारण नहीं देखा कि किसी ने नक़ल कर परीक्षा में प्रथम स्थान पाया हो, हाँ पास जरूर हो सकते हैं. हमें अब यह तय करना होगा की हम भारत के लिए क्या सिर्फ पास होने से संतुष्ट हैं या कुछ और चाहते हैं?

संस्कृति के अलग अलग आयाम हैं. उसमें कला एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. नाच-गान, साहित्य, कविता, नाटक इत्यादि इसके अंग हैं. भारत विविधताओं से भरा देश है. यहाँ की विविधता दुनिया के किसी भी देश से ज़्यादा है. यह हमारी शक्ति हो सकती है, सिर्फ भरोषा करने तक की देरी है.

अब मैं आपको कला के क्षेत्र में ले चलता हूँ। विद्यापति मैथिलि में वही स्थान रखते हैं जो बांग्ला में रविंद्रनाथ  या अंग्रेजी में विलियम शेक्सपीयर. मैथिलि, बांग्ला और उड़िया में काफी समानता है, कारन यह कि तीनो की उत्पत्ति एक ही भाषा परिवार (Indo-European language Family) से हुई है. विद्यापति के बारे में कहा जाता है कि वे शिव जी के अनन्य भक्त थे, पर उनकी कविता में राधा कृष्णा का भी वर्णन आता है. उनकी ऐसी ही एक कविता मैंने पढ़ी और मुझे बहुत अच्छी लगी . मैं जनता हूँ कि आज कल हिंदी पढ़ने वालों कि संख्या में भारी गिरावट आ गयी है और मैथिलि जैसी स्थानीय भाषाओं का हश्र तो और भी बुरा है. फिर भी मैंने सोचा कि शिकायत करने के बजाये कुछ काम किया जाये .

तो आज मैं विद्यापति की कविता को आपके समक्ष रखूँगा हिंदी, मैथिली, बांग्ला  समझने वाले थोड़ा प्रयत्न करने पर समझ जायेंगे, पर थोड़ी तकलीफ होगी जरूर. इसलिए मैंने उसका अनुवाद भी कर दिया है. पर, इसकी भी गारंटी नहीं की अनुवाद १०० फीसदी सही होगी. अनुरोध है कि भाव को समझिये|

विद्यापति ने इस कविता में  भगवान श्री कृष्णा द्वारा राधारानी को रिझाने के प्रयाश का वर्णन किया है

अम्बरे वदन झपावह गोरी
राज सुनैछिअ चांदक चोरी ||1||

हे गौरवर्ण वाली राधा! आप अपना मुख आँचल से ढक लो
सुना है आज चाँद की चोरी हो गयी है

घरे घरे पहरी गेल अछि जोहि
अबही दूषण लागत तोहि ||2||

घर घर जा कर प्रहरी इसकी जांच कर रहे हैं
देखना कहीं ये आरोप तुम पर न लग जाये

कतहि नुकाओब चंदक चोरी
जतहि नुकाओब ततहि उजोरि ||3||

आप अपने मुख रुपी चाँद को कहाँ छुपाओगी?
जहाँ छुपाओगी वही उजाला हो जायेगा

सुन सुन सुन्दरि हित उपदेश
सपनेहु जनु हो विपदक लेश ||4||

हे सुंदरी मेरे इस हितोपदेश को सुनो
जिसके सुनने से सपने में भी कभी विपदा नहीं आएगी

हास सुधारस न कर उजोर
धनिक बनिके धन बोलब मोर ||5||

आप हंस कर इतना उजाला न फैलाओ
वरना सभी धनवान को लगेगा की उनका सारा धन आपके पास है

अधर समीप दसन कर जोति
सिंदुर सीप वेसाऊली मोती ||6||

आपके अधरों के बीच से इस प्रकार प्रकाश फैला रहे है
माने सीप के बीच मोती राखी हुई हो

भनहि विद्यापति होहु निसंक
चन्दहू का किछु लागु कलङ्क ||7||

विद्यापति कृष्णा द्वारा राधा से कहते हैं की आप बिना शंका के रहो
प्रहरी को बता दूंगा जिस चाँद को वे ढूँढ रहे हैं  उसमें तो दाग है, पर ये तो बेदाग है|

 

आशा हैआप सभी पाठकों को कविता अच्छी लगी होगी, नमस्कार !!!