आज मैंने फिर से इतिहास में डुबकी लगाई, और तभी अचानक मेरी, एक पुरानी कविता बाहर आयी …चाहें तो आप भी डुबकी लगा आयें, या इसे ही पढ़कर इसमें, अपने भावों को पायें …. 🙂 😉
मुखौटे
चेहरे कम मुखौटे ज़्यादा
दिखतें हैं इस बाज़ार में
हम बेहतर हैं तुमसे
सभी जुटे हैं इसी प्रयास में ||1||
जिसका चेहरा जितना बनावटी
वह उतना ही सफल है
छल प्रपंच से भरे खेल में
उसकी दांव प्रबल है ||2||
अपनापन का भाव कहाँ यहाँ पर
केवल स्वार्थ निहित है
भावना से भरे व्यक्ति की
हार यहाँ निश्चित है ||3||
…………अभय…………