इस कविता के “मैं” को, आप खुद से भी बदल कर देख सकते हैं . मुझ तक पहुँचाना न भूलिए कि कैसी लगी.
मैं जैसा हूँ, मुझे वैसे देखो
अपने-अपने चश्मे हटाओ ,
पूर्वाग्रह को दूर बिठाओ ,
फिर अपने स्वार्थ को तुम फेंको
मैं जैसा हूँ मुझे वैसे देखो !!!
कोई समझता मित्र मुझे,
कोई समझता बैरी है ,
कोई ढूंढता प्रेम है मुझमें ,
कोई समझता मुझे, नफरत की ढेरी है !!!
कोई चाहता हर पल उनके ,
प्रलय तक मैं संग निभाऊं
किसी की ख्वाहिश है फिर कभी अब,
उनके जीवन में, मैं न कोई रंग लगाऊं!!!
कोई कहता है जीवन में जो खुशियाँ है उसका ,
कारण भी मैं हूँ और सृष्टा भी मैं ही
फिर किसी को है लगता, जीवन में है अवसाद जितने
मैं ने ही बनाया, मैंने ही बसाया!!!
किसी को है मेरी, चुप्पी खटकती
किसी को झकझोरता है, मेरा बोलना
किसी के लिए बंद पुस्तक सही मैं
किसी को पसंद मेरा मन का खोलना!!!
जिसने मुझमें जो-जो ढूंढा ,
उसने मुझमें वो-वो पाया ,
पर मेरा नित्य स्वरुप है क्या?
शायद , किसी को अब तक समझ न आया
और सच कहूँ, तो शायद मुझे भी नहीं!!!
……..अभय ……….
शब्द सहयोग
पूर्वाग्रह: Prejudice