जमी बर्फ़ ..

हर रोज़  कई  बातें

तुमसे  मैं  कर  जाता  हूँ

कुछ  ही  उनमें  शब्द  बनकर

जुबां तक आ पाती हैं

कई उनमें  से  मानो

थम  सी  जाती  हैं

ह्रदय  में  कोई  बर्फ़  जैसी

 ज़म सी  जाती  है!

रिश्तों  की  गर्माहट  पा दबे  शब्द  भी

कभी तो  निकलेंगे

सभी  पुरानी  जो  बर्फ़  जमीं  है

कभी  तो  वो  पिघलेंगे

पिघली हुई  बातें  जब

कल-कल  कर  बह  जाएँगी

तब  भी  क्या  तुम  किसी  शैल  सा

खुद  को  अडिग  रख  पाओगी

या  नदी  किनारे  की  मिट्टी  सी

खुद ही  जल  में मिल  जाओगी

तुम भी पिघल जाओगी

…….अभय…….

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ढूँढता हूँ..

अमावस की ये रात घनेरी, मैं चाँद ढूंढता हूँ
डर के छुपा जहाँ है शेर बैठा, मैं वो मांद ढूंढता हूँ

सदियों से फैले सन्नाटों में, मैं कोई पैगाम ढूंढता हूँ
सारे नियमों को तोड़ कर, मैं अंजाम ढूँढता हूँ

उलझे सपनों की लम्बी सफर में, मैं राह ढूँढता हूँ
हर झूठी हंसी में तेरी , मैं छुपी कराह ढूँढता हूँ

….. अभय…..

Hello to my fellow bloggers. I came here after a long hiatus, as I was engaged in some hectic work. Hope you all would be fine. I missed your writings, and hoping you also would have missed my poems 😀 Would try to be in touch more frequently. Do let me know your views.

भय पर विजय करो

मृतप्राय तुम भय के सम्मुख
हर क्षण अविरल अश्रुधार पीते हो
व्यर्थ तुम्हारा जीवन जग में जो तुम
यूँ पल-पल घुट-घुट कर जीते हो

डर अधम है, डर पाप है
सबसे बड़ा यही अभिशाप है
यही कारण है पुरुषार्थ के खोने का
आशाओं के सम्मुख भी फूट -फूट कर रोने का

वीरों की हत्या जितनी उनके
चिर शत्रुओं ने न की है
इस निकृष्ट भय ने उससे कहीं ज़्यादा
उनकी प्राण हर ली है

हे मनु पुत्र तुम
इस पाश्विक भय का परित्याग करो
चुनौतियों से जूझो तुम
उसे सामने से स्वीकार करो

कोई यूँ ही नहीं अपने आप ही
राणा प्रताप कहलाता है
लोहे के चने चबाता है ,
भय को भी नतमस्तक करवाता है

जिस दिन भय पर विजय तुम्हारी होगी
पथ और लक्ष्य का अंतर पट जायेगा
भयाक्रांत कमजोर समझता था जो खुद को
वह मानव, देव तुल्य बन जायेगा

……..अभय ……..

अपनी राह../ My Way

अपनी राह..

राहों को अपनी, मैं खुद ढूंढ लूंगा

बन पथप्रदर्शक तुम, मुझे न उलझाओ||

मेरे उम्मीदों को अब, पर जो लगें है

अपनी आसक्तियों की, न जाल बिछाओ||

कष्टों का पहाड़ सीधे सिर पर सहा है

राह के रोड़ों से तुम, मुझे न डराओ||

सच है जो कड़वा, मैंने खुद चख लिया है

उसपर झूठ की मीठी तुम, परत न चढ़ाओ||

मंज़िल है मुश्किल औ’ लंबा सफर है

जो बीच में हो जाना, शुरू से साथ न आओ||

ज्ञान की दीपक अब जो जली है

अपने आंसुओं से उसे न बुझाओ||

जाना जहाँ है, राहों में कांटे बिछे हैं||

मेरे लिए अभी फूलों की हार न लाओ||

निराश लोगों की लम्बी पंगत लगी है

सांत्वना भरे गीत तुम, उन्हें ही सुनाओ||

नम्रता में मैंने जीवन है जीया

मेरे खुद पे भरोसे को, मेरा अहम् न बताओ||

………..अभय…………

My Way

I will carve out my own way

Don’t pretend to be my guide and confuse me

My aspirations have found its wings

Don’t entrap it by your frail attachment

I have already faced mountainous hardships

Don’t scare me, with the petty pebbles of the road

I have already tasted the bitter truth

Don’t present it to me by coating sugar on it

All my ignorance is burning in the bonfire of Knowledge

Don’t extinguish it with your incessant tears

Destination is distant and path is treacherous

Don’t accompany me, if you are thinking of leaving in midway

There seems to be a long queue of despondent

Don’t console me, go and cheer them up

I have spent my whole life in humility

Don’t term my self-belief, as an act of arrogance

@Ab

ढोंग ..

ढोंग

ढोंग करना अच्छा लगता है
तब, जब कि हम
धनवान हों तो, निर्धन का
ज्ञानी हों तो, अज्ञानी का
विनम्र हो, फिर अभिमानी का
होश में हैं, बेहोशी का
मदिरा छुई नहीं, मदहोशी का
राज़ पता हो, फिर ख़ामोशी का
जगे हुए हों, फिर सोने का
हर्षित मन हो, फिर रोने का
हरपल संग हों, पर उन्हें खोने का
भक्त हो ,तो अभक्ति का
कोमल ह्रदय हो, तब सख्ती का
मुखर हो, फिर मौन अभिव्यक्ति का
ढोंग करना अच्छा लगता है
…..अभय……

गीत गाऊँ

जीवन में अगणित फूल खिले
सुख के दिन चार ,
दुःख की कई रात मिले
आशाओं की ऊँची अट्टालिकाएं सजाई
नियति को उनमे , कई रास न आयी
कुछ ही उनमे आबाद हुए
कई टूटे , कई बर्बाद हुए
किसे दोष दूँ मैं ,
किसे दुःख सुनाऊँ
जाने मैं कौन सा गीत गाऊँ

स्वयं की खोज में मैंने
कईयों को पढ़ा
सैकड़ों ज़िंदगियाँ जी ली मैंने
मैं सहस्त्रों बार मरा
सोचा था कि तुम संग,
चिर अन्नंत तक चलोगे
मुझे क्या पता था कि तुम
पग – पग पर डरोगे
किसे मैं जीवन के ये अनुभव सुनाऊँ
जाने मैं कौन सा गीत गाऊँ

ये भ्रम में न रहना कि
मैंने ये दुःख में लिखा है
या अपने आसुंओ को मैंने
स्याही चुना है
ये उनके लिए हैं
जो ज़िंदा लाश नहीं हैं
या उनके लिए है
जिन्हे अभी खुद पर विश्वास नहीं है
अन्नंत आघात हैं मुझपर, फिर भी मुस्कुराऊँ
“विपदाओं में टूटकर बिखरो नहीं”, मैं यही गीत गाऊँ

……….अभय ………

अब भी मेरे सपनो में आती हो…

boy
Photo Credit:onehdwallpaper.com

अब भी मेरे सपनो में आती हो…

हाथ पकड़ती थी वो,

कुछ दूर संग मेरे आती थी

देख न ले दुनिया,

जग से नज़रें चुराती थी

मेरे मन के हर कोने में

आशियाँ बनाती जो

तुम अब भी मेरे सपनो में आती हो…


अक़्सर लंबी थी जो राहें लगती,

संग तेरे सिमट जाती थी

जिसकी हर हँसी,

पीहू की याद दिलाती थी

हर सावन की पहली बारिश में,

संग मेरे भीग जाती जो

तुम अब भी मेरे सपनो में आती हो…


दिन तो बीते जैसे-तैसे,

पर रात ठहर जाती थी

अनायास ही मन को मेरे,

याद तेरी आती थी

हर पल हर क्षण संग हो मेरे,

एहसास कराती जो

तुम अब भी मेरे सपनो में आती हो…

………..अभय………..

दीप, अंधकार, प्रकाश और मैं..

नमस्ते मित्रों, कैसे हैं आप लोग? पिछले कुछ समय से समय की व्यस्तता के कारण हिंदी कविताओं का सृजन और उनका प्रेषण नहीं कर पा रहा था. पर सिर्फ समय को दोष दूँ तो कोई ठीक बात नहीं, समय के संग संग मन में भी विचार पनपने चाहिए और खास कर तब जबकि आप कोई पेशेवर कवि न हों.
कई दिनों बाद आज कुछ विचार आया आप तक पहुँचाता हूँ, ज़रा संभालना 🙂

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जो तुम दीप बुझा दोगे अपनी
घोर अँधेरी रातों में
और सोचोगे कि मैं अब संग मौजूद नहीं
तो मैं बता दूँ आपको कि
मैं न तो प्रदीप्त प्रकाश हूँ
न ही खामोश अंधकार कोई
मेरा अस्तित्व न तो
चंद दीयों पर निर्भर करता है
दीये के जलने पर भी मैं हूँ
दीये के बुझने पर भी मैं ही
माना नज़र न आ सकूँ
पर नज़र न आना और अस्तित्व न होना
दोनों एक बात तो नहीं
बोलो, है कि नहीं ?

…….अभय…….

पर्यावरण संरक्षण

pb

पर्यावरण संरक्षण

सड़के हो रही हैं चौड़ी

पेड़ काटे जा रहे!

बांध बनाकर नदियों के

अविरल प्रवाह हैं रोके जा रहे!

ध्रुवों से बर्फ है पिघल रहा

समुद्रों का जल भी है बढ़ रहा ,

कहीं तपिश की मार से,

पूरा शहर उबल रहा!

कहीं पे बाढ़ आती है

कहीं सुखाड़ हो जाती है,

तो कहीं चक्रवात आने से

कई नगरें बर्बाद हो जाती है

कहीं ओलावृष्टि हो जाती है

तो कहीं चट्टानें खिसक जाती है

प्रकृति का यूं शोषण करने से,

नाज़ुक तारतम्य खो जाती है

है देर अब बहुत हो चुकी

कई प्रजातियां पृथ्वी ने खो चुकी

सबका दोषी मानव ही कहलायेगा,

पर्यावरण संरक्षण करने को जो

अब भी वो कोई ठोस कदम नहीं उठाएगा!

………….अभय ………….

चक्रवात..

Chakrawat
Credit: Google Image

चक्रवात

ये जो तेरी यादों का समंदर है
लगे जैसे कोई बवंडर है
मैं ज्यों ही करता इनपे दृष्टिपात
मन में उठता कोई भीषण चक्रवात
मैं बीच बवंडर के आ जाता हूँ
और क्षत विछत हो जाता हूँ
इसमें चक्रवात का क्या जाता है
वह तो तांडव को ही आता है
अपने हिस्से की तबाही मचा कर
वह जाने कहाँ खो जाता है
मैं तिनका-तिनका जुटाता हूँ
और फिर से खड़ा हो जाता हूँ
पर, तेरी यादों की है इतनी आदत
ए चक्रवात ! तुम्हारा फिर से स्वागत

……अभय…..