जाने क्यों ?

जाने क्यों ?

 

तुम दीपक की लौ सी सुलगती हो

जाने क्यों

मैं मोम सा पिघलता हूँ!

 

तुम बारिश में मचलती हो

जाने क्यों

मैं हर दो कदम पर फिसलता हूँ!

 

तुम बिजली सी चमकती हो

जाने क्यों

मैं तड़ित चालक बनता हूँ!

 

तुम बिन कहे सब कह जाती हो

जाने क्यों

मैं चीखकर भी मौन रहता हूँ!

 

…….अभय……

 

शब्द सहयोग:

तड़ित चालक: Lightening arrester; its used as a tool which  arrest or capture lightening yet doesn’t store it, rather let it pass through itself in to the ground. Now use it in context of the poem, do you find any relevance 🙂

पढ़ने के लिए शुक्रिया….

Advertisement

वो रास्ता..

contemplation
Credit: Internet

वो रास्ता..

सच्चाईयों से मुँह फेरकर,

मुझपर तुम हँसते गए

दल-दल राह चुनी तुमने, 

और गर्त तक धसते गए


खुद पर वश नहीं था तुम्हें ,

गैरों की प्रवाह में बहते गए

जाल बुनी थी मेरे लिए ही,

और खुद ही तुम फँसते गए


नमी सोखकर मेरे ही जमीं की,

गैरों की भूमि पर बरसते रहे

सतरंगी इंद्रधनुष कब खिले गगन में,

उस पल को अब हम तरसते रहे

……….अभय ………..

अँधेरा दिन

हुए दूर हम जब से तब से
खोया मेरा सवेरा है
रातें अँधेरी होती सबकी
यहाँ दिन भी हुआ अँधेरा है

आलम यह है कि
बेचैन हूँ मैं,
पर किसी से कह नहीं रहा
यादों का महल
जर्जर हो चला है
पर अब भी यह, ढह नहीं रहा

पलकों तले सैलाब समेटे
हँसते चले जाते हैं
रास्ता नया आता है
मंज़िल वहीं रह जाती है
………अभय ……..

मैं और मेरी नाव

शुक्रवार की रात से अगर कुछ अच्छा हो सकता है तो वो है शनिवार का दिन, psychologically थोड़ा सुकून रहता है कि चलो एक और दिन तो बचे हैं छुट्टी के. आज सवेरे बाइक लेकर मॉर्निंग वॉक पर निकला :-P. जैसा कि मैंने पहले भी शायद किसी लेख में लिखा है कि मुझे नदी किनारे अपने शहर की मरीन ड्राइव पर, जो शायद 10-12 किलोमीटर लम्बी होगी, सुबह सुबह गाड़ी चलाने में मज़ा आता हैं. उसी मरीन ड्राइव पर एक स्थान ऐसा भी हैं जहाँ दो नदियाँ मिलती हैं. वहां बैठने का प्रबंध भी हैं. मैं अक्सर वहां जाता हूँ तो कुछ देर रुकता हूँ. आज भी रुका.

IMG_20160924_165721_new
I was discussing about the same place, It is known as “Domuhani“, meaning two mouthed. A term to refer meeting of the two rivers. Clicked it few months back.

वातावरण, जो दिन में आज-कल काफी गर्म हो जाता हैं, सुबह में काफी सुहावना सा हो रहा था. कोयल उसमें मिठास घोल रही थी. कल रात की तेज बारिश और तूफ़ान के बाद आम के पेड़ से काफी मंजर नीचे गिरे हुए थे, पर उनकी अलग से खुसबू अब तक आ रही थी, एक पका हुआ बेल भी गिरा हुआ था, मैं उठाने जा ही रहा था कि एक अधेड़ उम्र की माता जी ने उस पर दूर से ही चिल्लाकर कब्ज़ा जमा लिया, मैंने उठाकर उनको दे दिया और बोला कि मैं आप ही के लिए उठा रहा था 😛 😛 …..वो भी मेरे परोपकार को  समझ रही थी . उन्होंने मुस्कुरा के कहा चलो रहने दो , मैंने भी अपनी दांत दिखा दी.
उसके बाद कुछ देर बैठा, तो कुछ विचार निकले…फ़ोन पर ही ड्रॉफ्ट कर लिया. थोड़ी संसोधन के पश्चात आपके सामने प्रस्तुत है…अपने मनोभाव को मुझ तक पहुँचाना मत भूलियेगा

Boat
Google se uthaya

मैं और मेरी नाव 

मैं नदी के इस किनारे
तुम बैठी थी उस पार
बारिश का मौसम
बाढ़ थी आयी
नदी हुई विकराल
पर मुझे तो था आना
कैसे भी तेरे पास
तैरकर जाना मुश्किल था
नदी में प्रचंड बहाव था
सोचा एक नाव बनाते हैं
सहारे नाव के
तेरे पास हो आते हैं
लग गया नौका बनाने में
सुध नहीं रही ज़माने की
ऐसा व्यस्त हुआ कि
मौसम तक बदल गया
बारिश बीत गयी
ग्रीष्म चरम पर आ गयी
नदी बरसाती थी
तलछटी तक वो सूख गयी
आज मेरी नौका तैयार है
विडंबना ऐसी कि
नदी में जल नहीं है
न ही तुम खड़ी हो उस किनारे पर
मैं हूँ और संग मेरे, मेरी नाव ….

…………..अभय ……………

सुनहरा धागा …

आज विश्व काव्य दिवस है, मतलब #World Poetry Day. आप सभी को बधाई. आज मेरी लिखी कुछ पंक्तियाँ आपके समक्ष …..धागे को विश्वास या भरोसे से बदल कर देखिये और इस कविता में इसकी सटीकता को ढूंढिए  …

 

arj

 

Background Image Credit: Google Image.

जुगनू

जुगनू

आजकल रात जुगनू मेरे छत पे
झुण्ड में मंडरा रही है
अनजाने में ही सही लेकिन मुझे
तेरी याद दिला रही है

इक पल जलती , फिर बुझ जाती
जैसे सुख दुःख का एहसास कराती
कम ही सही,
पर प्रकाश तो फैला रही है

एक जुगनू बैठ हाथ पे
शायद कुछ गा रही है
अफ़सोस! उसकी एक बात भी
मेरे समझ नहीं आ रही है

स्तब्ध हूँ मैं बैठा
देख उसकी कोमलता
है छोटी सी, पर पल भर को ही सही
अंधकार को हरा रही है

उड़ चली हाथों से
झुण्ड में वो समा गयी
मानो स्पर्श से मेरे
हो वो शर्मा गयी है
तेरी याद दिला गयी है …

………..अभय………..

 

एक और गणतंत्र दिवस..

कल देश गणतंत्र दिवस मनायेगे, मनाना भी चाहिए. देश कैसे चलेगा, यह निर्णय तो आज ही के दिन 1950 में लिया गया था. कल नेताओं का भाषण होगा, पर सोचता हूँ, क्या देश के हर व्यक्ति के घर में रात का राशन होगा? अरे छोड़िये साहब, क्या हर एक व्यक्ति का अपना घर भी है? राजपथ पर जो परेड होगी, झांकियां निकलेगी, जब लोग उन्हें अपने टेलीविजन पर देखेंगे, तो उसकी चकाचौंध में यह प्रश्न निश्चय ही कहीं खो जायेगा. खैर एक बात तो तय है, लता दीदी की “ऐ मेरे वतन के लोगों….”, जो भावुक हैं और राष्ट्रभक्त भी, उन्हें आज भी वैसे ही रुलायेगी…

मैं अंग्रेजी के एक प्रसिद्ध लेखक (नाम नहीं लूंगा, भारतीय ही हैं) का लेख पढ़ रहा था. वो राष्ट्रीयता को अपने हिसाब परिभाषित करने में लगे हुए थे. लेख पढ़के गुस्सा भी आया और हताषा भी हुई, कि लेखक देश को यूरोप और अमरीका के चश्मे से क्यों देखता हैं? क्या हम, देश को परिभाषित करने में सक्षम नहीं हैं?

देश की वर्तमान परिस्थिति पर सोचते सोचते कलम उठाया, कुछ पंक्तियाँ लिखीं, कविता कहूँ या नहीं आप तय कीजिये और बताइये कैसी लगी…

nation
Image Credit: Internet

देश भक्तों की टोली चली है

हर तरफ ये नारा है

हिन्द सागर से हिमालय तक

पूरा भारत हमारा है


चुनौतियों से भरा पहर है

देशद्रोही सभी मुखर हैं

“अफ़ज़ल” “अज़मल” को हैं शहीद बताते

और सेना पर पत्थर बरसाते


इनमें से कुछ तो खुद ही को

बुद्धिजीवी हैं बतलाते

और, भारत माता की जय कहने पर

वे अपना मुख हैं बिचकाते


पर, उनपर जब हम प्रश्न उठाते

तो वे “असहिष्णु” “असहिष्णु” चिल्लाते

फिर लाइन लगाकर वे

“अवार्ड वापसी” को लग जाते 


वे “पांच-सितारा” होटल को जाते

और जनता को गरीबी की पाठ पढ़ाते

चुनाव जितने के खातिर

हम जाती धर्म पर बांटे जाते


देशभक्तों को जगना होगा

एक स्वर में कहना होगा

जिसे भारत में रहना होगा

भारत की जय कहना होगा


देर बहुत अब हो चुकी

बांग्ला और पाक जन्म ले चुकी

और नहीं लूटने देंगे

देश और नहीं टूटने देंगे


देश भक्तों की टोली चली है

हर तरफ ये नारा है

हिन्द सागर से हिमालय तक

पूरा भारत हमारा है

………अभय………

 

शब्द सहयोग:

मुखर : Vocal, Vociferous or Outspoken.

असहिष्णु : Intolerant 

बुद्धिजीवी : Intellectuals 

 

विरह गीत

साहित्य के जानकारों और बुद्धिजीवियों का मानना हैं  “विरह में प्रेम अपने शिखर पर होता है”. ख़ैर, मैं कोई साहित्यकार या विचारक तो हूँ नहीं कि इस कथन पर टीका या टिपण्णी करूँ, आप तक एक कविता ही पहुँचता हूँ. ये ताज़ी तो नहीं है, मैंने पहले कभी लिखी थी और एक-दो गोष्टि में भी सुना चूका हूँ. पर वर्डप्रेस पर पहली बार लिख रहा हूँ  🙂 आशा है आपको पसंद आएगी…..

विरह गीत

प्रियतम तेरे प्रेम में प्यासे
बैठा था मैं पतझर से
आँखों से अब अश्रु भी नहीं गिरते
सूख गए बंजर से

जब विरह की हुई शुरुआत
लगा ह्रदय पर शूल सम घात
प्राणवायु के बहने पर भी
न कटते थे मेरे दिन रात

दिन कटा सोचकर तेरे
यादों के अविचल मेले
मचल पड़ा मेरा मन फिर से
सावन में मिलने को अकेले

पर, दिल की कहा सुनी जाती है
यह तो शीशा है शीशा
विरह के पत्थर से टकराकर
चूर चूर हो जाती हो

जाने ये मंजर क्यों आता है
जब कोई अपना दूर जाता है
बेमौशम बारिश होती है
आँखे बादल में बदल जाती है

………..अभय………..

 

शब्द सहयोग
विरह: Separation
प्राणवायु: Oxygen

मैं और तुम

surajchanda

मैं और तुम

 

मैं सूरज बन आता हूँ

तुम चंदा बन जाती हो,

तिमिर चीर कर मैं

पास तुम्हारे आता हूँ,

और तुम अपनी छटा

कहीं और बिखराती हो !!!

 

लाख यत्न कर,

मिलन की आस लिए

बन बादल मैं,

आसमान पर छाता हूँ

तुम बारिश की बन बूंदें

धरती पर उतर आती हो!!!

अगणित तारे सदियों से

देख रहे इस खेल को,

मैं भी हूँ मूक बना

और तरसता मेल को

पर मन में दृढ विश्वास लिए

सोचता हूँ, एक दिन ऐसा भी आएगा

सूरज चंदा साथ में एक दिन

विश्व भ्रमण को जायेगा!!!

 

बुँदे कहेगी बादल से

कुछ दिन नभ में ही रुक जाते हैं

फिर दोनों मिलकर इकट्ठे

धरती की प्यास बुझाते हैं!!!

…………अभय…………

शब्द सहयोग:

तिमिर: अंधकार या अँधेरा

मैं, मेरी परछाई

shadow

शनिवार. वीकेंड का पहला दिन, दिन भर की फुरसत और फुरसत में दिमाग कुछ ज्यादा चलता ही है. आज चला और कुछ विचार निकले. फिर उसने एक कविता का रूप लिया.आपके सामने है. आज ही लिखी , और सोचा आज ही पोस्ट कर दूँ, ज़्यादा रिव्यु नहीं कर पाया…

अग्रिम चेतावनी: प्रेमी प्रेमिका मेरे कविता की “परछाई” में अपने प्रेमी प्रेमिका को ढूंढने का प्रयास न करें, वरना कविता के अंत में अफ़सोस होगा  😜😛

मैं, मेरी परछाई

मैं, मेरी परछाई
आज शाम संग बैठे थे
भीड़ से दूर…
एक दूजे के करीब…

परछाई कहने लगी ,
प्रश्न है बहुत दिनों की ,
इज़ाज़त हो तो बयां करूँ
मैं हँसा और हँस के बोला
पूछना, जो पूछना हो ?

उसने बोला

“सबसे करीब तुम्हारे
बोलो कौन है ?
शोर मचाती है जो मन में
पर जुबान पर मौन है ?”

जो मैं कुछ बोलता ,
मन की गठरियों को
सामने उसके खोलता
उसके पहले वो बोल पड़ी
“अरे वो मैं हूँ पगले , मैं हूँ “!!

मैं थोड़ा चकराया ,
मासूमियत भरे उत्तर पर
मंद मंद मुस्काया
और पूछा
“वो कैसे ! फरमाइए “
अपने विचार पर ज़रा
LED वाला प्रकाश तो लाइए

भावना में वो बह गयी ,
और फिर जाने मुझसे क्या क्या कह गयी ,
आपको मैं सुनाता हूँ
बदले में आपका पूरा अटेंशन चाहता हूँ

वो बोली
“संग तुम्हारे हूँ तब से ,
है वज़ुद तुम्हारा जब से ,
तुम चलते हो
मैं चलती हूँ
रुकने से थम जाती हूँ

बिना अपेक्षा के आशा के
साथ तुम्हारे रहती हूँ
दुःख हो या सुख हो
हर भाव मैं सहती हूँ
कितने सावन बीत गए ,
और जितने भी सावन आयेंगे
जो कोई रहेगा साथ तुम्हारे तो
वो मैं हूँ बस मैं हूँ “
मैं बोल पड़ा
“बस कर पगली
अब क्या रुलायेगी ?
इतने दिनों की कहानी
सब ही आज कह जाएगी “

भावुक होता देख उसे
मैं बोला चलो चलते हैं
गाल फूला के आँख झुका के
संग मेरे हो चली

निकल पड़ा घर की ओर
सूरज भी ढलने लगा था
परछाई लंबी होने लगी थी
मैं छोटा लगने लगा था

तभी अचानक
अँधेरा छाया ,
ओर मैं खुद को अकेला पाया

कहाँ गयी मेरी परछाई ?
जो वफाई की दे रही थी दुहाई ?
अँधेरा आते ही सरक गयी
पतली गली से खिसक गयी

तभी मन में विचार आया ,
कभी परछाई आपकी ,
आपसे भी लंबी हो जाती है ,
पर बिन प्रकाश के वो भी ,
साथ छोड़ जाती है .
कोई साथ रहता जो अंधकार में आपके
वो आपकी  परछाई भी नहीं है
“केवल आप हो, और कोई नहीं है”
अब प्रश्न है कि आप कौन हो ?

…………अभय…………