स्मरण
आशंकाओं से घिरे पहर में ,
दुविधाओं के बीच भंवर में,
दर्द भरी आहों में,
या सूनी राहों में
मरुभूमि के टीलों में
नेत्र बनी जो झीलों में
या बंजर मैदानों में
सूखे खेत खलिहानो में
स्वजनित विपदाओं में
या प्राकृतिक आपदाओं में
जब जब हम खुद को
हारा हुआ पाते हैं
नेत्र स्वतः बंद हो जाते हैं
वंदन को हाथ जुड़ जाता है
कभी अहम् से था जो मस्तक ऊँचा
वह भी झुक जाता है
दुःख की घड़ी में तो अनायास ही
ध्यान प्रभु का आता है
पर सुख के पहर में स्मरण ईश्वर को
शायद ही कोई कर पाता है
~अभय
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