अँधेरा दिन

हुए दूर हम जब से तब से
खोया मेरा सवेरा है
रातें अँधेरी होती सबकी
यहाँ दिन भी हुआ अँधेरा है

आलम यह है कि
बेचैन हूँ मैं,
पर किसी से कह नहीं रहा
यादों का महल
जर्जर हो चला है
पर अब भी यह, ढह नहीं रहा

पलकों तले सैलाब समेटे
हँसते चले जाते हैं
रास्ता नया आता है
मंज़िल वहीं रह जाती है
………अभय ……..

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मैं और मेरी नाव

शुक्रवार की रात से अगर कुछ अच्छा हो सकता है तो वो है शनिवार का दिन, psychologically थोड़ा सुकून रहता है कि चलो एक और दिन तो बचे हैं छुट्टी के. आज सवेरे बाइक लेकर मॉर्निंग वॉक पर निकला :-P. जैसा कि मैंने पहले भी शायद किसी लेख में लिखा है कि मुझे नदी किनारे अपने शहर की मरीन ड्राइव पर, जो शायद 10-12 किलोमीटर लम्बी होगी, सुबह सुबह गाड़ी चलाने में मज़ा आता हैं. उसी मरीन ड्राइव पर एक स्थान ऐसा भी हैं जहाँ दो नदियाँ मिलती हैं. वहां बैठने का प्रबंध भी हैं. मैं अक्सर वहां जाता हूँ तो कुछ देर रुकता हूँ. आज भी रुका.

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I was discussing about the same place, It is known as “Domuhani“, meaning two mouthed. A term to refer meeting of the two rivers. Clicked it few months back.

वातावरण, जो दिन में आज-कल काफी गर्म हो जाता हैं, सुबह में काफी सुहावना सा हो रहा था. कोयल उसमें मिठास घोल रही थी. कल रात की तेज बारिश और तूफ़ान के बाद आम के पेड़ से काफी मंजर नीचे गिरे हुए थे, पर उनकी अलग से खुसबू अब तक आ रही थी, एक पका हुआ बेल भी गिरा हुआ था, मैं उठाने जा ही रहा था कि एक अधेड़ उम्र की माता जी ने उस पर दूर से ही चिल्लाकर कब्ज़ा जमा लिया, मैंने उठाकर उनको दे दिया और बोला कि मैं आप ही के लिए उठा रहा था 😛 😛 …..वो भी मेरे परोपकार को  समझ रही थी . उन्होंने मुस्कुरा के कहा चलो रहने दो , मैंने भी अपनी दांत दिखा दी.
उसके बाद कुछ देर बैठा, तो कुछ विचार निकले…फ़ोन पर ही ड्रॉफ्ट कर लिया. थोड़ी संसोधन के पश्चात आपके सामने प्रस्तुत है…अपने मनोभाव को मुझ तक पहुँचाना मत भूलियेगा

Boat
Google se uthaya

मैं और मेरी नाव 

मैं नदी के इस किनारे
तुम बैठी थी उस पार
बारिश का मौसम
बाढ़ थी आयी
नदी हुई विकराल
पर मुझे तो था आना
कैसे भी तेरे पास
तैरकर जाना मुश्किल था
नदी में प्रचंड बहाव था
सोचा एक नाव बनाते हैं
सहारे नाव के
तेरे पास हो आते हैं
लग गया नौका बनाने में
सुध नहीं रही ज़माने की
ऐसा व्यस्त हुआ कि
मौसम तक बदल गया
बारिश बीत गयी
ग्रीष्म चरम पर आ गयी
नदी बरसाती थी
तलछटी तक वो सूख गयी
आज मेरी नौका तैयार है
विडंबना ऐसी कि
नदी में जल नहीं है
न ही तुम खड़ी हो उस किनारे पर
मैं हूँ और संग मेरे, मेरी नाव ….

…………..अभय ……………

मंजिल

मंजिल  

अकेले ही तुम निकल पड़े ,
कितनी दूर , कहाँ तक जाओगे ?
बैठोगे ज्यों किसी बरगद की छावों  में
मुझे याद कर जाओगे

मैं तेज नहीं चल सकती
मेरी कुछ मजबूरियां हैं
और यह भी सच है, जो मैं सह न सकुंगी
तेरे मेरे दरमियाँ, ये जो दूरिया हैं

कुछ पल ठहरते
तो मेरा भी साथ होता
सुनसान राहों में किसी अपने का
हाथों में हाथ होता

कोई शक नहीं तुम चल अकेले
अपनी मंज़िल को पाओगे
पर देख मुझे जो मुस्कान लबों पे तेरे आती थी
क्या उसे दुहरा पाओगे ?

…….अभय ……..