कभी कभी तो आँखों से
अश्रुधार अनवरत बह जाने दो
क्या पता कि अतीत के
कई दर्द भी उनमें धुल जाये
.
कभी कभी तो खुद की नौका
उफनते सिंधु में उतर जाने दो
क्या पता कि लहरों से टकराकर
उस पार किनारा मिल जाये
.
कभी कभी किसी मरुभूमि को
अकारण ही जल से सींचो
क्या पता कि कोई सूखा पौधा
फिर से पल्लवित हो जाये
.
कभी कभी अनायास ही
अन्यायी से सीधे टकराओ
क्या पता कि कई मुरझाया चेहरा
एक बार फिर से मुस्कुरा जाये
.
कभी कभी तो खुद से ज़्यादा
नियति पर भरोसा रखकर देखो
क्या पता कि सब संदेह तुम्हारा
क्षणभर में क्षीण हो जाये
.
कभी कभी तो संभावनाओं को
विश्वास से भी बढ़ कर तौलो
क्या पता कि आशाओं की चिंगारी
इतिहास नया कोई लिख जाये
.
कभी कभी तो ईश चरण में
शीश झुकाकर के देखो
क्या पता फिर और कहीं
मस्तक तुमसे न झुकाया जाये
…..अभय…..
It took me some days to finally compose this poem. Hope you will like it.विशुद्ध हिंदी के पाठकों से विशेषअनुरोध है कि अपनी राय से जरूर अवगत कराएं.🙂
I loved the poem but just wanted to bring to your notice a typo in the 2nd line of last para….. the 2nd word. The poem is very motivating and touching.
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Yeah..Thanks so much for pointing that out. It should be झुकाकर, and not झुककर.. I will correct it.
I am also pleased that you liked the underlying message…thanks once again!
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Well Written!
Prashasti Patel
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Thanks Prashasti! 🙂
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A well composed poem!!
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Thank You Indira ji!
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बहुत खूब लिखा है 👌👌ऊपर की लाइन मुझे बहुत अच्छा लगा।
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बहुत बहुत शुक्रिया🙏😀
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So.. precisely written 👌👏👏🌸
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Thanks Sonal..
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You are welcome Abhay.
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🙂
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This is beautifully worded indeed. The last part is, of course, the most powerful one.
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Thank You 🙂
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प्रत्येक पद का अपना महत्व। बहुत दिनों बाद आपके कलम से एक बेहतरीन रचना निकलती हुई। लाजवाब भाई जी।
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हाँ भी मुझे भी 2020 की अपनी सबसे अच्छी रचना लगी! शुक्रिया
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सुना है श्रद्धा हो तो रब
पत्थर में मिल जाते हैं,
प्रेम की भाषा इंसां क्या,
पशु-पक्षी,
जानवर भी समझ जाते हैं,
माँ खुश होती,जब बच्चा दूध पी लेता,
दानी खुश होता जब किसी को कुछ दे देता,
प्रफुल्लित होती नदियाँ,
किसी की प्यास मिटाकर,
झूम उठते वृक्ष,
किसी को फल खिलाकर,
हिम ना पिघलता,
नदियों का कोई वजूद नही होता,
तुम ना होते,
इन शब्दों का भी
कोई मूल्य ना होता,
पतझड़,मधुमास,पावस,
आते जाते
और
आते जाते,
दिवस-रात्रि,
सूर्य और चांद भी,
रुकता कहाँ कुछ!
फिर ये तेरी उदासी कैसी?
ठीक नही ज्यादा बोलना माना मैंने,
मगर इतनी चुप्पी भी तो ठीक नही,
हवाओं में घुले मेरे शब्द सुनाई नही दे रहे,
मगर दिल में उठते ज्वार भाटे की शोर,
दबाना भी तो ठीक नही,
देख प्रकृति मुस्कुरा रही,
हवाएँ सरगम सुना रही,
चिड़ियों की शोर,
कभी गोधूलि,कभी भोर,
तुम्हें जीवन का यथार्थ समझा रही,
कुछ भी स्थिर नही,
फिर तुम स्थिर कैसे?
कभी तो झुकी पलकें उठाकर देखो,
कभी तो बेतमलब मुस्कुराकर कर देखो,
कभी तो हमसे कुछ सुनाकर देखो,
क्या पता
सूखी नदी को जल स्रोत मिल जाए,
और हमें हमारा दोस्त,
जीवन-साथी।
!!!मधुसूदन!!!
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और ये रहा नहले पे दहला! बहुत उम्दा सरकार🙏
जितनी तारीफ़ की जाए कम है
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हा हा हा। हम तो खुश हो जाते जब कोई बेहतरीन रचना पढ़ने को मिलती और किसी पद से एक छोटी रचना मेरी भी बन जाती। धन्यवाद आपका।
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आपके प्रेरणाओं के कारण हमारा हौसला बढ़ता है!
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क्या बात!☺️
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Wow 👌
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Thank you
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बहुत सुंदर भावभीनी कविता ।
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जी बहुत बहुत धन्यवाद🙏
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Beautiful flow and words Abhayji. Your writings are worth reciting!
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Thanks so much! 😀
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Nice poem
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शुक्रिया 😀
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No problem
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बहुत सुंदर कविता सुदर शब्द चयन हिंदी का मान बढ़ाती हुई 🌸❤
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बहुत बहुत धन्यवाद अपना आशीष बनाये रखने के लिए
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Nicely composed.
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Thank You 🙏
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Beautiful poem!!!!
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Thank You Era..:)
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You’re welcome!!!!
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बहुत सुंदर । आप मेरी साइट भी विज़िट कर लाइक और कमेंट कर बताएं कि मेरा प्रयास कैसा है 🙏🙏
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जी धन्यवाद, जरूर विजिट करूँगा
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behoot badhiya,
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Thank you Nitin bhai!
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